मूल मामला

अब समय आ गया है कि अदालत भीमा कोरेगांव मामले की वैधता की जांच करे 

Updated - August 15, 2022 12:06 pm IST

Published - August 12, 2022 10:47 am IST

स्वास्थ्य के आधार पर 82 वर्षीय तेलुगु कवि और सामाजिक कार्यकर्ता वरवर राव को जमानत मिलना, गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत विवादास्पद भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तार किए गए लोगों में से कम से कम एक के लिए राहत की बात है। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के इस तर्क की ठीक ही अनदेखी की जिसमें एनआईए ने कहा कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को उखाड़ फेंकने के प्रयास में शामिल व्यक्ति को जमानत देने पर विचार करने में उम्र कोई कारक नहीं है और उनका स्वास्थ्य उतना भी गंभीर नहीं है कि उन्हें जमानत दी जाए। इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि इसी मामले में गिरफ्तार हुए आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी की तबीयत बिगड़ने से जेल में ही मौत हो गई थी, जबकि उन दिनों स्वास्थ्य के आधार पर उनकी जमानत याचिका पर सुनवाई चल रही थी। श्री राव को अगस्त 2018 में हिरासत में लिया गया था और फरवरी 2021 में स्वास्थ्य के आधार पर छह महीने की अंतरिम जमानत दी गई थी। बंबई उच्च न्यायालय ने इलाज के बाद उनके हिरासत में लौटने की तारीख निर्धारित की थी, लेकिन समय-समय पर इसे बढ़ाया जाता रहा। उनकी उम्र को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अब समय सीमा हटाकर उन्हें नियमित जमानत दे दी है, बशर्ते वह मुंबई में रहें और गवाहों से संपर्क न करें। कोर्ट ने इस बात का भी संज्ञान लिया है कि इस मामले में चार्जशीट दाखिल किए जाने के बावजूद निचली अदालत ने अब तक आरोप तय नहीं किए हैं। इसके अलावा, यह दावा भी नहीं किया गया कि उन्होंने किसी भी तरह से अंतरिम जमानत का दुरुपयोग किया हो। 

यूएपीए के मामले में किसी आरोपी के पास जमानत पाने का विकल्प काफी हद तक खराब स्वास्थ्य तक ही सीमित है, क्योंकि मामले की मेरिट के आधार पर जमानत मिलना लगभग नामुमकिन है। इस कानून के तहत, आरोपियों को यह साबित करना होगा कि पुलिस द्वारा लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया सच नहीं हैं। खासकर एनआईए बनाम जहूर अहमद शाह वटाली मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, इस मुश्किल शर्त को पूरा करना आसान नहीं है। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जमानत पर विचार करते समय, अदालत को किसी भी व्यक्ति के खिलाफ पेश की गई सामग्री की तह तक जाने की जरूरत नहीं है, उसे बस यह देखना चाहिए कि अभियोजन पक्ष के आरोप “व्यापक संभावनाओं के आधार पर” सही है या नहीं। हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे में होने वाली लंबी देरी और मौलिक अधिकार के उल्लंघन को आधार बनाकर खुद ही इस सीमा को तोड़ा और यहां तक कि यूएपीए मामलों में भी जमानत देने के लिए भी इसे आधार बनाया। 31 दिसंबर, 2017 को एक स्मृति कार्यक्रम के दौरान पुणे में हुई हिंसक घटनाओं को भीमा कोरेगांव केस का नाम दिया गया। हालांकि इसका इस्तेमाल, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आपस में जोड़कर, सरकार को उखाड़ फेंकने की कथित माओवादी साजिश का मामला बताने के लिए किया गया। ऐसी ठोस रिपोर्ट मौजूद है जिनमें यह कहा गया कि इस मामले में आरोपी को फंसाने के लिए, स्पाइवेयर का इस्तेमाल करके इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य प्लांट किए गए। अब समय आ गया है कि अदालत इस मूल सवाल की जांच करे कि क्या यह मामला अपने आप में वैध है या कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को फंसाने के लिए मनमाने तरीके से बुना गया है। न्यायपालिका को शक के आधार पर किसी को भी लंबे समय तक कैद में नहीं रखना  चाहिए। 

This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.

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