सफाया शैली: पीएफआई पर प्रतिबंध

पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने का गृह मंत्रालय का फैसला हड़बड़ी भरा है

Published - September 30, 2022 12:31 pm IST

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) को चरमपंथी इस्लामी संगठन घोषित किए जाने पर चिंता जताने की कोई वजह नहीं होगी। सरकार ने इसे अलगाववाद और सांप्रदायिकता की राजनीति का प्रचार करने वाला संगठन करार दिया है। संगठन के दावे के मुताबिक इसने देश भर के मुस्लिमों के हित में सामाजिक और न्यायिक गतिविधियों में हिस्सा लिया है जो संवैधानिक मूल्यों के मुताबिक है। केरल और तटीय कर्नाटक में पीएफआई के सदस्यों की गतिविधि खास तौर पर इस फैसले के लिए जिम्मेदार है जिसने वहां धार्मिक और राजनीतिक हिंसा पैदा की और धार्मिक आस्था चोटिल होने के नाम पर निगरानी दस्ता तैयार किया। वर्ष 2006 में अपनी स्थापना के बाद से एक संगठन के तौर पर पीएफआई का काफी विस्तार हुआ। इसकी मुख्य वजह भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में हिंदुत्व के वर्चस्वशाली ताकत के तौर पर उभरने के समानांतर सामाजिक और न्यायिक क्षेत्र में इसकी मुखर कार्रवाई रही है। इसकी राजनीतिक और चुनावी शाखा माने जाने वाली सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया को इतना समर्थन नहीं मिला, क्योंकि अल्पसंख्यक मतदाताओं ने धर्मनिरपेक्ष पार्टियों या उदारवादी सामाजिक ताकतों को वोट देना पसंद किया। पीएफआई सांप्रदायिक राजनीति और भारत के कई हिस्सों में मौजूद बहुसंख्यकवाद का इस्लामी संस्करण है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसके जिन कार्यकर्ताओं को हिंसा फैलाने, सतर्कता दस्ता के तौर पर सक्रिय होने और गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल होने के नाम पर गिरफ्तार किया गया है उनकी कानूनी पड़ताल होनी चाहिए और उन्हें सजा मिलनी चाहिए। लेकिन, जिस अंदाज में गृह मंत्रालय ने पीएफआई और इससे संबद्ध सभी संगठनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया है, उसे देखते हुए सवाल उठता है कि क्या इस तरह का कठोर फैसला लेना सही है। सिर्फ एसडीपीआई को छोड़ दिया गया क्योंकि उसका दावा है कि पीएफआई से उसका कोई लेना-देना नहीं है।

गत 27 सितंबर को गृह मंत्रालाय द्वारा जारी अधिसूचना में पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों को “गैरकानूनी संगठन” करार दिया गया। कहा गया कि ये “लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए, समाज के एक वर्ग विशेष को चरमपंथी बनाने का एक गुप्त एजेंडा चला रहे थे”। छापेमारी और गिरफ्तारियों के सिलसिले के बाद पांच साल के इस प्रतिबंध का फैसला लिया

गया। पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने और अलग-अलग मामले के हिसाब से न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते हुए दोषी कार्यकर्ताओं और नेताओं को सजा दिलाने के बजाय सरकार ने अंधाधुंध गिरफ्तारियों का तरीका अपनाया। सरकार के इस अंदाज से अल्पसंख्यकों के प्रति अपनाए जाने वाले रवैये को लेकर उनके भीतर और बेचैनी बढ़ेगी। फिर, ये तबके और ज्यादा चरमपंथ की ओर मुड़ सकते हैं। चरमपंथ को खत्म करने की प्रक्रिया कोई ऐसा काम नहीं है जिसे सिर्फ कानून लागू कराने वाली एजेंसियों के भरोसे छोड़ दिया जाए। बल्कि खात्मे का यह काम सरकारी शासन – प्रणाली का संविधान में प्रदत्त धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की ओर फिर से मुड़ने का नतीजा होना चाहिए। हाल के वर्षों में इस कसौटी पर सरकार खरी नहीं उतरी है। इस बीच, प्रतिबंध के बाद संगठन ने यह ऐलान किया कि अधिसूचना के बाद वह भंग हो गया है। प्रतिबंध का इस्तेमाल मुस्लिमों को निशाने पर लेने के लिए नहीं होना चाहिए। खासकर राजनीतिक तौर पर असहमति जाहिर करने वाले और ऐसे लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं को निशाने पर लेने के लिए जिन्होंने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम जैसे भेदभावपूर्ण कानूनों के खिलाफ वैध प्रदर्शन में हिस्सेदारी निभाई हो।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

To read this editorial in Tamil, click here.

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