जैसे-जैसे इजराइल और ईरान के बीच, इरादे या गलत अनुमान के हिसाब से, टकराव की चिंताएं बलवती होती जा रही हैं, संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन को पूर्ण सदस्य का दर्जा देने के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के प्रस्ताव की खबर को उतनी तवज्जो नहीं मिली, जितना कि उसे मिलनी चाहिए थी। संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस प्रस्ताव को वीटो कर दिया। अल्जीरिया द्वारा लाया गया यह प्रस्ताव 1947 में किए गए उस वादे को पूरा करने की दिशा में इस वैश्विक संस्था का एक और कदम था, जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा के मूल रूप से तत्कालीन फिलिस्तीन को दो राष्ट्रों, एक यहूदी और एक अरब, में विभाजित करने के प्रस्ताव को अपनाते समय दिया गया था। वर्ष 949 में सिर्फ इजराइल ही संयुक्त राष्ट्र का पूर्ण सदस्य बना। “फिलिस्तीन का सवाल” दशकों से उछाला जाता रहा है और भले ही फिलिस्तीन राष्ट्र को 2012 में स्थायी पर्यवेक्षक का दर्जा हासिल हुआ तथा 2019 में जी-77 एवं चीन वाले समूह के अध्यक्ष के रूप में इसके कार्यकाल के दौरान पूर्ण सदस्य की अस्थायी शक्तियां मिलीं, लेकिन उसे अब तक पूर्ण सदस्य के रूप में मान्यता नहीं दी गई है। गुरुवार के यूएनएससी के प्रस्ताव, जिसे यूएनएससी के 15 में से 12 सदस्यों ने समर्थन दिया था, को वीटो करते हुए अमेरिका ने कहा कि उसका मानना है कि फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र प्रक्रिया के जरिए नहीं, बल्कि “संबंधित पक्षों के बीच सीधी बातचीत” के जरिए सदस्यता प्रदान की जानी चाहिए। इजरायली राजदूत ने कहा कि हमास द्वारा किए गए सात अक्टूबर के आतंकवादी हमलों के छह महीने बाद इस समय फिलिस्तीन को पूर्ण सदस्य का दर्जा देना “सबसे घृणित अपराधों के लिए सबसे घृणित इनाम” जैसा होगा। यह भी तर्क दिया जा सकता है कि यह फिलिस्तीन के लंबे समय से वंचित अधिकार को मान्यता देने का सही समय है – खासकर सात अक्टूबर के बाद, जब इजराइल ने गाजा पट्टी और पश्चिमी किनारे (वेस्ट बैंक) में फिलिस्तीनियों पर अंधाधुंध बमबारी की है। यूएनएससी के युद्धविराम के प्रस्ताव, जिस पर अमेरिका ने भी हस्ताक्षर किए हैं, के बावजूद इजराइल का अपना अभियान जारी रखना तथा अब राफा पर एक और हमले की धमकी देना, यह दर्शाता है कि फिलिस्तीनी राष्ट्र को इस बहुपक्षीय मंच पर ज्यादा मजबूत आवाज की सख्त जरूरत है।
अमेरिका को सभी मुद्दों पर इजरायली नजरिए को इस तरह के व्यापक संरक्षण देने के अपने रवैये पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए। फिलिस्तीन सिर्फ “संबंधित पक्षों के बीच बातचीत” के जरिए ही एक राष्ट्र हो सकता है वाले तर्क में एक खोट है: यह इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ही हैं जिन्होंने जनवरी में यह ऐलान किया था कि वह कभी भी एक फिलिस्तीनी राष्ट्र को स्वीकार नहीं करेंगे और उनका इरादा “जॉर्डन के पश्चिम में स्थित तमाम इलाकों पर पूर्ण इजरायली सुरक्षा नियंत्रण” बनाए रखना है। संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन का शामिल होना यह भी सुनिश्चित करेगा कि नया राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों के दायित्वों से बंधा होगा। सभी फ़िलिस्तीनियों को हमास द्वारा किए गए आतंकवादी कृत्यों के साथ जोड़ना एक घोर अन्याय है - लड़ाकों एवं गैर-लड़ाकों के बीच अंतर करने से इनकार करने से हिंसा के सभी पीड़ितों का दर्द और भी हाशिए पर चला जाता है। एक ऐसे समय में जब अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था दरक रही है, एक वैश्विक नेता के रूप में अमेरिका को एक देश का पक्ष लेने वास्ते आम सहमति को तोड़ने के बजाय उसे बनाने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करना संयुक्त राष्ट्र के ‘सभी राष्ट्र की संप्रभुता की समानता’ के मूल सिद्धांत के उलट चलना और इसके बजाय “ताकतवर ही सही हो सकता है” के घोर आदिम सिद्धांत को मानने जैसा है।