जरूरी संकेतः यूएन के सोओपी 27 की जलवायु परिवर्तन पर बैठक

सीओपी27 को यह रेखांकित करना चाहिए कि भविष्य को बचाने की लागत समय के साथ बढ़ती ही जाएगी

Published - November 09, 2022 12:18 pm IST

कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) का 27वां सत्र मिस्र के समुद्र किनारे बसे शर्म अल-शेख शहर में चल रहा है। वहां अगले दो हफ्ते तक दुनिया भर से सरकारों के प्रमुख, राजनयिक, कारोबार के प्रमुख, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार और लॉबी करने वाले लोग इकट्ठा होंगे। वैश्विक ऊर्जा खपत को बेहतर बनाकर, विनाशकारी जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी को बचाने की संभावनाओं को बेहतर करने की दिशा में कदम बढ़ाने की यह कोशिश है। हालांकि, हर सीओपी का अंत तोल-मोल भरी सौदेबाजी के बाद पारित हुए दस्तावेज के साथ होता है, लेकिन उसमें यही मूल तत्व हमेशा बरकरार रहता है: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि सभी देश आर्थिक विकास से समझौता किए बिना, ग्लोबल वॉर्मिंग के खामियाजे से बचने की दिशा में योगदान दें। और यह योगदान, इस संकट को बढ़ाने में अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के हिसाब से हो। द्वीपीय देशों समेत ऐसे कई देश हैं जिन पर ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे ज्यादा असर पड़ेगा, जबकि इसे बढ़ाने में इनकी कोई खास भूमिका नहीं रही है। गौरतलब है कि सीओपी समझौते हस्ताक्षरकर्ता सदस्य देशों पर बाध्यकारी नहीं हैं और कभी-कभी वे इन समझौतों को मानने से पूरी तरह पलट भी जाते हैं। जैसे, दोबारा इसमें शामिल होने से पहले अमेरिका ने एकतरफा अंदाज में खुद को इससे बाहर कर लिया था। ऐसे में, इस तरह की बैठकें सार्वजनिक दिखावे का मंच बन जाती हैं। पर्यावरण से जुड़े लक्ष्यों को लेकर देश बड़े-बड़े दावे तो करते हैं, लेकिन इन कड़े नियमों को लागू करने की दिशा में बहुत कम काम करते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्हें ऐसा करने पर राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। हालांकि, सीओपी की बैठकें असरदार भी साबित हुई हैं। एक दशक पहले तक, ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के बीच के रिश्तों की आलोचना करने वालों की तादाद ठीक-ठाक थी, लेकिन अब शायद ही कोई देश इस बुनियादी विज्ञान पर सवाल उठाता है। दुनिया अब जीवाश्म ईंधन मुक्त भविष्य की ओर बढ़ रही है।

इस लिहाज से, अगर सीओपी27 के अध्यक्ष और मिस्र के विदेश मंत्री समीह शौकरी के शब्दों में कहें तो सीओपी27 को कथित तौर पर “अमल करने वाले सीओपी” के तौर पर देखा जाना लाजिमी ही है। जीवाश्म ईंधन के बदले नवीकरणीय स्रोतों को अपनाना महंगा है और बड़े विकासशील देश (भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका) कार्बन मुक्त भविष्य के लिए प्रतिबद्धता

तो जाहिर कर रहे हैं, लेकिन अंतरिम तौर पर वे जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल करने के अधिकार को भी रेखांकित करते हैं। इस बात पर सहमति बन चुकी है कि ऐसे बिल का भुगतान विकसित देश करेंगे, लेकिन तकरार इस बात पर है कि इस बिल के भुगतान के तरीकों को कैसे निर्धारित किया जाए। भारत का कहना है कि ‘अमल करने वाले सीओपी’ को एक पारदर्शी भुगतान प्रणाली बनाना चाहिए और यह बताना चाहिए कि पहले से ही जलवायु आपदाओं से जूझ रहे देशों को कैसे मुआवजा दिया जा सकता है। इसका मतलब यह भी होगा कि भुगतान पाने वाले देश भी इस दिशा में ज्यादा पारदर्शी बनेंगे कि प्रदूषण फैलाने वाले स्रोतों को खत्म करके बेहतर जलवायु की दिशा में कदम बढ़ाने की दिशा में इन निवेशों का किस तरह इस्तेमाल किया गया। ग्लासगो 2021 में ‘नेट ज़ीरो’ या कार्बन न्यूट्रल होने की प्रतिबद्धता की जोर-शोर से चर्चा हो रही थी, उससे उलट अमल करने वाले इस सीओपी में महत्वाकांक्षी सफलता की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। हालांकि, कई बार कम चर्चा वाले और नहीं दिखने वाले भी अपना काम कर जाते हैं। सीओपी27 से यह स्पष्ट संदेश जाना चाहिए कि चाहे युद्ध हो या शांति, गरीबी हो या समृद्धि, दुनिया के भविष्य को बचाने की कीमत हर गुजरते दिन के साथ महंगी ही होती जाएगी।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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