भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) द्वारा पार्टी का नाम और धनुष एवं तीर का चुनाव चिन्ह आवंटित किए जाने के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट ने कम से कम फिलहाल के लिए तो शिवसेना की विरासत की जंग जीत ही ली है। ईसीआई ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा पार्टी में विभाजन से संबंधित आपस में जुड़े सवालों के एक सेट पर फैसला सुना देने तक अपना निर्णय रोके रखने की पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले दूसरे गुट की दलील को खारिज कर दिया। पार्टी में विभाजन की वजह से श्री ठाकरे को जून 2022 में श्री शिंदे के हाथों मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी थी। ईसीआई द्वारा लागू किया गया ‘बहुमत का परीक्षण’ सिद्धांत शिंदे गुट के पक्ष में गया। शिंदे गुट के साथ जहां 40 विधायक और 13 सांसद हैं, वहीं ठाकरे पक्ष के साथ 15 विधायक और पांच सांसद ही हैं। ईसीआई ने यह निष्कर्ष निकाला कि शिंदे की अगुवाई वाला धड़ा ठाकरे गुट के मुकाबले काफी ज्यादा मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्होंने पिछले चुनावों में पार्टी को वोट दिया था। ईसीआई ने श्री ठाकरे पर तोहमत के तौर पर ऐसी स्थितियों में लागू होने वाली ‘पार्टी संविधान के परीक्षण’ की दूसरी कसौटी को नहीं आजमाने का फैसला किया। श्री ठाकरे ने शिवसेना के संविधान में एकतरफा और अपने फायदे के लिए कई बदलाव किए थे। ईसीआई का फैसला श्री ठाकरे के लिए एक झटका है, जो 1966 में अपने पिता द्वारा स्थापित पार्टी पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे हैं।
अदालत 21 फरवरी से असली शिवसेना होने का दावा करने वाले दोनों खेमों की याचिकाओं पर सुनवाई शुरू करने वाली है। जिस भी खेमे को असली शिवसेना के रूप में स्वीकार किया जाएगा, उसके पास दल-बदल विरोधी कानून के प्रावधानों के अनुरूप व्हिप के जरिए विधायकों को मजबूर करने का अधिकार होगा। शिंदे गुट की यह दलील है कि मुख्यमंत्री ने आंतरिक विद्रोह के बाद और बहुमत की इच्छा के अनुरूप पार्टी पर नियंत्रण कर लिया; और किसी ने भी दलबदल नहीं किया है, जैसा कि ठाकरे गुट की तरफ से आरोप लगाया जा रहा है। अदालत इस बात की भी जांच कर रही है कि क्या एक पीठासीन अधिकारी, जिसकी खुद की वैधता संदेह के घेरे में है, दलबदल विरोधी कानून के तहत विधायकों को अयोग्य ठहराने का फैसला ले सकता है या नहीं। यह देखते हुए कि आने वाले सप्ताह में सर्वोच्च अदालत में इन सारे सवालों पर बहस होगी, ईसीआई थोड़ा और इंतजार कर सकता था। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि नाम और चुनाव चिन्ह के बारे में ईसीआई के फैसले को भी अदालत में उठाया जाएगा। इस कानूनी लड़ाई से परे, दोनों धड़ों के बीच असली लड़ाई लोकप्रिय जनाधार पर कब्जा जमाने की है। इस मोर्चे पर भी श्री ठाकरे ने श्री शिंदे के हाथों अपनी जमीन गवांते दिख रहे हैं। श्री शिंदे कैडरों और नेटवर्कों पर अपनी पकड़ बढ़ाते जा रहे हैं। स्पष्ट रूप से, सालों से धार्मिक अतिवाद और क्षेत्रीय कट्टरता की तेज खुराक पर पले - बढ़े पार्टी के कार्यकर्ताओं को कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ श्री ठाकरे के अवसरवादी जुड़ाव के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी के साथ श्री शिंदे का राजनीतिक गठजोड़ कहीं ज्यादा रास आ रहा है।
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