इंग्लैंड और उसके पूर्व उपनिवेशों के बीच खुशहाल रिश्तों को जाहिर करने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के साथ, विरासत के कुछ मसले हो सकते हैं। साथ ही, अमेरिका, रूस और चीन की अनुपस्थिति की वजह से इसे प्रतिस्पर्धात्मक मानदंड के हिसाब से ओलंपिक और एशियाई खेलों से एक पायदान नीचे माना जाता है। फिर भी, चार सालों में होने वाले बहुराष्ट्रीय आयोजन की वजह से राष्ट्रमंडल खेलों की कुछ खास अहमियत है जिसमें अलग-अलग महादेशों में फैले ऐसे देश हिस्सेदारी करते हैं जिनका डोर ब्रिटिश साम्राज्य के एक साझे अतीत से जुड़ी है। यह एथलीटों को गौरव की अनुभूति देने के अलावा उनके प्रशंसकों के भीतर, खेल को करियर बनाने का अतिरिक्त उमंग भरता है। सोमवार को बर्मिंघम में संपन्न हुए इस आयोजन के ताजा संस्करण में 22 स्वर्ण समेत कुल 61 पदक जीतकर भारत चौथे पायदान पर रहा, जबकि ऑस्ट्रेलिया, मेजबान इंग्लैंड और कनाडा ने पदक तालिका के शीर्ष तीन पायदान अपने नाम किए। निशानेबाजी को राष्ट्रमंडल खेलों से बाहर रखने की वजह से भारत को इसका नुकसान हुआ। भारत के जीते गए अधिकांश पदक उम्मीद, लगन और कड़ी मेहनत की दास्तान बयान करते हैं। 40 साल की उम्र में भी शरद कमल ने टेबल टेनिस में जो कारनामा किया, वह बताता है कि खिलाड़ी उम्र से लड़ सकता है। पुरुषों के 55 किलोग्राम वर्ग में भारोत्तोलक संकेत सरगर के रजत ने दिखाया कि आर्थिक तंगी किसी जुनूनी एथलीट की राह नहीं रोक सकती। चार साल पहले, महाराष्ट्र के सांगली में संकेत की एक छोटी-सी पान की दुकान थी। उनकी कहानी फख्र करने लायक है।
ऐसा ही निजी इतिहास, 73 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीतने वाले भारोत्तोलक अचिंता शेउली का भी है। अचिंता, उनके भाई आलोक और मां कढ़ाई किया करते थे। पिता की मौत के बाद गरीबी से लड़ने के लिए दोनों भाइयों ने खेत मजदूरी भी की। संकेत की तरह, अचिंता भी आशा और मुक्ति की कहानी है। जहां नए एथलीटों ने मुश्किल हालातों पर जीत हासिल करके लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा, वहीं दिग्गजों ने भी अपना दबदबा कायम रखा। पी.वी. सिंधु, जिन्हें अब भारत के सबसे महान एथलीटों में शुमार किया जाएगा, ने बैडमिंटन महिला एकल में स्वर्ण पदक जीता, जबकि उनके साथी पुरुष खिलाड़ी लक्ष्य सेन ने भी पदक अपने नाम किया। नए खेलों में भी फतह हासिल हुई। हमेशा अफ्रीकियों के दबदबे वाले खेल में, अविनाश साबले ने पुरुषों की 3000 मीटर स्टीपलचेस में रजत पदक जीता। बॉक्सर निकहत जरीन ने फिर से अपने मुक्के में महिला-शक्ति का दम दिखाया, वहीं उनकी साथी लवलीना बोरगोहेन की नाकामयाबी और राष्ट्रमंडल खेलों से पहले उनकी निजी कोच से जुड़े मसलों ने कई कमियों को उजागर किया। हॉकी और महिला क्रिकेट ने भी पदक झटके, लेकिन वे स्वर्ण नहीं थे। दोनों टीमें मुश्किल हालातों में खुद को सहेज नहीं सकी। खेल हमेशा युद्ध की तरह नहीं होता और नीरज चोपड़ा ने पुरुषों के भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण जीतने वाले पाकिस्तान के अरशद नदीम की जिस उत्साह से तारीफ की, वह इसका सबूत है। अगले साल चीन में होने वाले एशियाड खेलों की तैयारी में जुटे भारतीय एथलीटों के लिए राष्ट्रमंडल की ताजा कामयाबी काफी मददगार साबित होगी।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.