मौजूदा उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का कार्यकाल खत्म होने के एक दिन बाद, जगदीप धनखड़ गुरुवार को देश के 14वें उपराष्ट्रपति के रूप में शपथ लेंगे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के उम्मीदवार के रूप में, उन्होंने शनिवार को हुए चुनाव में 710 वैध वोटों में से 528 वोट हासिल किए। विपक्षी उम्मीदवार और कांग्रेस नेता मार्गरेट अल्वा को 182 वोट मिले। तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव में भाग नहीं लिया। धनखड़ के चुनाव का नतीजा पहले से तय था, क्योंकि एनडीए के पास स्पष्ट बहुमत था, जिसे बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) के समर्थन ने और मजबूत कर दिया। 2003 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में शामिल होने से पहले, राजस्थान के जाट नेता जगदीप धनखड़ ने जनता दल और कांग्रेस में रहकर दिल्ली और राजस्थान की राजनीति की। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में उनकी नियुक्ति के बाद उन्होंने राष्ट्रीय सुर्खियां तब भी बटोरी, जब पश्चिम बंगाल में सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ी। एक प्रशिक्षित वकील के तौर पर उन्होंने कभी भी शाब्दिक हमले का मौका नहीं चूका और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री और टीएमसी के साथ लगातार चली उठापटक में उन्होंने राजनीतिक बयानों और कानूनी तर्क को आपस में जोड़ा। उन पर पक्षपात के आरोप लगे, लेकिन उप-राष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले, टीएमसी ने आपसी लकीर को धुंधला किया और इस चुनाव में हिस्सा न लेकर परोक्ष रूप से उनका समर्थन ही किया। टीएमसी ने कांग्रेस पर मार्गरेट अल्वा के नामांकन पर उससे परामर्श नहीं करने का आरोप लगाया, लेकिन इस दावे में दम नजर नहीं आता। पूरे प्रकरण ने विपक्ष के कवच में कई खामियों को उजागर कर दिया है। वैसे तो जीत पहले से तय थी, लेकिन टीएमसी से मिले सहयोग ने पूरे मामले में साजिश की एक और परत जोड़ दी।
उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति भी होता है। यह भूमिका हर समय महत्वपूर्ण होती है, लेकिन इस वक्त सरकार और विपक्ष के बीच जिस तरह की तनातनी चल रही है, उसे देखते यह और ज्यादा अहम हो जाती है। बीते दिनों संसदीय कार्यवाही लगातार ठप रही, सांसदों को निलंबित किया गया और सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दलों के बीच बातचीत पूरी तरह बंद हो गई। सरकार ने अहम कानून बनाने के लिए, मनमाने तरीके से किसी विधेयक को धन विधेयक करार देते हुए, राज्यसभा को बार-बार दरकिनार किया। यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है। उपराष्ट्रपति के रूप में, धनखड़ से उम्मीद है कि वे सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के बीच बेहतर संबंध की बहाली में मदद करेंगे और सदन की गरिमा और संवैधानिक भूमिका को बनाए रखेंगे। मौजूदा हालात में यह काम आसान नहीं है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र में रुचि रखने वाले हर किसी को उनके शुरुआती कदमों का बेसब्री से इंतजार रहेगा। उपराष्ट्रपति के तौर पर धनखड़ की पदोन्नति से भाजपा को निश्चित रूप से राजनीतिक मदद मिलेगी। सभापति के रूप में उनकी भूमिका, विपक्ष के लिए सदन में उसकी जगह को सुनिश्चित कराने, बहस कराने और कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने की ज्यादा होनी चाहिए। नए उप-राष्ट्रपति के आगमन से संसदीय लोकतंत्र की उम्मीदों का नवीनीकरण होना चाहिए।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.