नए साल के पहले हफ्ते में जम्मू-कश्मीर के राजौरी के डांगरी में आतंकवाद के क्रूर कृत्यों में दो बच्चों सहित छह नागरिकों की हत्या कर दी गयी। श्रीनगर और दिल्ली में पुलिस-प्रशासन इन घटनाओं पर चुप्पी साधकर बैठी हुई है। यह साफ है कि अपराधियों का इरादा उस क्षेत्र में रह रहे हिन्दुओं के बीच आतंक फैलाने का था। वे एक जनवरी को घरों में घुस आए और अंधाधुंध गोलीबारी की जिसमें चार नागरिक मारे गए और दस अन्य घायल हो गए। इसके मात्र 15 घंटों के भीतर, पीड़ितों में से एक के घर के बाहर फिर से विस्फोट हुआ, जिसमें दो नाबालिग सहित पांच अन्य लोग घायल हो गए। जम्मू क्षेत्र हाल के वर्षों में इस संघर्ष से अपेक्षाकृत रुप से अछूता रहा है, लेकिन हाल की घटनाएं एक गंभीर अतीत की वापसी की ओर इशारा करती है। राजौरी शांत था और हिन्दुओं पर आखिरी बार 16 साल पहले पर हमला किया गया था। यह इलाका पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर के साथ एक लंबी नियंत्रण रेखा से लगा है, जहां से घाटी में आतंकवादियों की घुसपैठ हो सकती है। वर्ष 2022 में इस बात के स्पष्ट संकेत थे कि यह जिला हिंसा का नया रंगमंच बन रहा है, जहां कम से कम चार ग्रेनेड के हमले और सुरक्षा बलों और आंतकवादियों के बीच कुछ मुठभेड़ की घटनाएं भी हुई हैं। इसमें स्थानीय लोगों के भागीदारी के भी संकेत मिले थे।
जम्मू-कश्मीर के सभी दलों ने एक स्वर में अल्पसंख्यकों के उपर हुए हमले की निंदा की है और नागरिकों को सुरक्षा मुहैया कराने में असफल रहने के लिए उपराज्यपाल (एलजी) प्रशासन पर निशाना साधा है। एलजी मनोज सिन्हा ने आतंकवाद पर अंकुश लगाने और क्षेत्र की सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए सख्त कार्रवाई का वादा किया है। जम्मू क्षेत्र के 10 जिलों में 1995 में गठित ग्राम रक्षा समितियों को पुनर्जीवित करने की मांग फिर से उठी है जो दूरदराज के उन इलाकों में आतंकवादियों से लड़ने की लिए गठित की गई थी, जहां सुरक्षा व्यवस्था कम थी। सशस्त्र स्वयंसेवकों द्वारा इसके दुरुपरोग किए जाने के आरोप के बाद उसे भंग कर दिया गया था। केन्द्र कश्मीर में राजनीतिक बातचीत नहीं करने को अपनी मजबूत नीति के रुप में प्रदर्शित करना चाहती है, लेकिन इस केन्द्र शासित प्रदेश में प्रवासी मजदूरों को लगातार निशाना बनाना आतंकवाद के नए रुझान की चेतावनी देता है। वर्ष 2022 में कम से कम 29 नागरिकों की हत्या हुई है जिसमें अधिकांश प्रवासी मजदूर या हिन्दू थे। हो सकता है कि नए प्रयोग से जम्मू-कश्मीर में अलग परिणाम मिले, लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से समस्याओं का हल निकालने के लिए सहभागिता की विभिन्न प्रक्रियाओं को इजाजत देने का पुराना तरीका अभी भी कारगर साबित हो सकता है। वर्ष 2018 के बाद, जम्मू-कश्मीर में चुनी हुई सरकार के नहीं होने की वजह से वहां की मुख्यधारा भी नई दिल्ली से दूर होती जा रही है। सतत राजनीतिक प्रक्रिया भले ही पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को रोकने की गारंटी नहीं करती है, लेकिन कश्मीर संघर्ष के किसी भी समाधान के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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