सिंधु जल संधि में संशोधन के लिए बातचीत की मांग करते हुए पाकिस्तान को नोटिस जारी करने के सरकार के फैसले पर सावधानीपूर्वक विचार किया जाना चाहिए। नई दिल्ली का कहना है कि यह अतिवादी कदम जम्मू एवं कश्मीर में दो भारतीय पनबिजली परियोजनाओं: 330 मेगावाट की किशनगंगा पनबिजली परियोजना (झेलम) और 850 मेगावाट की रतले पनबिजली परियोजना (चिनाब) पर आपत्तियों से जुड़ी पाकिस्तान के हठधर्मी रवैये की वजह से उठाया गया है। भारत ने 2006 में आपत्तियां उठने के समय से यह तर्क दिया है कि ये दोनों परियोजनाएं इस संधि में निहित उचित जल उपयोग के प्रावधान के दायरे में हैं। हालांकि, पाकिस्तान ने द्विपक्षीय व्यवस्था - विशेषज्ञों का स्थायी सिंधु आयोग जो नियमित रूप से बैठकें करता है – के तहत भारत के साथ बातचीत पूरा करने से इनकार किया है और अक्सर तकरार को बढ़ाया है। नतीजतन विश्व बैंक ने एक तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त किया, लेकिन पाकिस्तान ने ‘द हेग’ में मामले की सुनवाई पर जोर दिया। भारत ने इस किस्म के सिलसिले पर आपत्ति जताई है, क्योंकि उसका मानना है कि अगले चरण की ओर बढ़ने से पहले प्रत्येक चरण को अंजाम तक पहुंचाया जाना चाहिए। जहां भारत 2016 में इस प्रक्रिया को रोकने के लिए विश्व बैंक पर हावी होने में सफल रहा, वहीं पाकिस्तान अपने रूख पर अड़ा रहा और मार्च 2022 के बाद से, विश्व बैंक एक तटस्थ विशेषज्ञ और एक मध्यस्थता अदालत [कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (सीओए)], दोनों स्तर पर सुनवाई के लिए सहमत हो गया है। भारत ने पिछले साल तटस्थ विशेषज्ञ के समक्ष सुनवाई में भाग लिया था, लेकिन उसने ‘द हेग’ में सीओए में होने वाली सुनवाई का बहिष्कार करने का फैसला किया। ‘द हेग’ में शुक्रवार को इस मामले की सुनवाई शुरू हो गई। नई दिल्ली का कहना है कि चूंकि बातचीत में गतिरोध आ गया है, लिहाजा वह चाहती है कि इस पूरी संधि को संशोधनों और फिर से बातचीत के लिए खोला जाए। इस्ला माबाद द्वारा इन दो परियोजनाओं से उसकी अपनी जल-आपूर्ति में बाधा पड़ने के भौतिक साक्ष्य पेश करने में विफल रहने के मद्देनजर पाकिस्तान के खिलाफ भारत के आरोप वैध हो सकते हैं। विश्व बैंक द्वारा न्यायिक निर्णय की दो समानांतर प्रक्रियाएं चलाने की कवायद भी खतरनाक है क्योंकि इसमें विरोधाभासी फैसले हो सकते हैं। हालांकि, इस संधि को समीक्षा के लिए खोलने की अपनी समस्याएं हैं जिन पर भारत को ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए।
सबसे पहले सिंधु जल संधि, जिसने दोनों देशों के बीच सिंधु या उसकी छह सहायक नदियों के जल के बंटवारे का फैसला किया, पर 1960 में हस्ताक्षर होने से पहले मूल रूप से विचार – विमर्श में लगभग एक दशक का समय लगा। इसमें समन्वय और विवादों के समाधान की व्यवस्थाएं अंतर्निहित हैं जिन्होंने कम से कम आधी शताब्दी तक इस संधि को अच्छी तरह कायम रखा और इस संधि को अक्सर दुनिया भर में नदी तट के ऊपरी मुहाने और निचले मुहाने पर स्थित देशों के बीच जल बंटवारे के एक नजीर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव एवं राजनीतिक बयानबाजियों के बावजूद इसका टिका रहना इसके महत्व का एक सबूत है। इसके अलावा, अगर भारत और पाकिस्तान पिछले 16 सालों में अपने सिंधु आयोग की वार्ता में एक मामले से जुड़े मुद्दों का हल निकालने में सक्षम नहीं हुए हैं, तो इसकी क्या गारंटी है कि वे किसी उचित समय-सीमा के भीतर पूरी संधि पर फिर से बातचीत को अंतिम अंजाम तक पहुंचा सकते हैं? एक ऐसे वक्त में जब भारत और पाकिस्तान के बीच कोई राजनीतिक संवाद, व्यापार और वायु या रेल संपर्क नहीं है, इस संधि को बातचीत के लिए फिर से खोलना दोनों देशों के बीच टकराव का एक नया रास्ता खोल सकता है।
This editorial has been translated from English, which can be read here.