भारत शुक्रवार को अपना पहला स्वदेशी रूप से डिजाइन और निर्मित विमानवाहक पोत, आईएनएस विक्रांत, का जलावतरण करके अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, फ्रांस और चीन जैसे देशों के उस छोटे समूह में दाखिल हो गया है जिनके पास 40,000 टन से अधिक भार वाले विमानवाहक पोत को डिजाइन और निर्माण करने की क्षमता है। भारत भले ही इन विमानवाहक पोतों का इस्तेमाल 60 साल से भी अधिक समय से करता आ रहा है, लेकिन अब उसने ऐसा जहाज खुद ही विकसित कर लेने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है। विक्रांत के निर्माण के लिए स्टील को काटे जाने से लेकर इसके हकीकत में तब्दील होने में 17 साल लगे और इसपर लगभग 20,000 करोड़ रुपये खर्च हुए। एक समर्थ घरेलू रक्षा उद्योग का विकास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्राथमिकता रही है और यह नया विमानवाहक पोत रक्षा क्षेत्र में भारत की बढ़ती आत्मनिर्भरता का संकेत है। इस नए पोत में कुल मिलाकर 76 फीसदी स्वदेशी सामग्री का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन इसकी सबसे अहम तकनीक का आयात किया गया है। यह तथ्य हमें इस दिशा में लगातार आगे काम करते रहने की जरूरत की ओर इशारा करता है। एक बार में समुद्र में 7,500 मील का सफर कर सकने में सक्षम यह विमानवाहक पोत अपने आप में नायाब इंजीनियरिंग की एक मिसाल है। इसमें लगभग चालक दल के 1,600 सदस्यों के लिए तकरीबन 2,200 कक्ष हैं, जिनमें महिला अधिकारियों एवं नाविकों को समायोजित करने के लिए विशेष केबिन और एक विशेषज्ञ चिकित्सा की संपूर्ण सुविधा शामिल है। इस जहाज के निर्माण से जुड़े विभिन्न तकनीकी पहलुओं में युद्धपोत-श्रेणी के स्टील का उत्पादन शामिल है। भारत अबतक इस श्रेणी के स्टील का आयात करता रहा था। इस युद्धपोत का जलावतरण भारत और उसके उभरते रक्षा उत्पादन क्षेत्र को लक्ष्य को साध सकने और आगे बढ़ने का यकीन दिलाता है।
भारतीय नौसेना का लक्ष्य तीन विमानवाहक पोतों से लैस होना है। इसके पास पहले से ही रूस से खरीदा गया आईएनएस विक्रमादित्य मौजूद है और इसने विक्रांत के निर्माण के दौरान हासिल हुई विशेषज्ञता का इस्तेमाल अब एक दूसरा और अधिक सक्षम स्वदेशी विमानवाहक पोत के निर्माण में करने का सुझाव दिया है। आईएनएस विक्रांत हिंद-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की सक्रिय समुद्री रणनीति में एक अग्रणी भूमिका निभाएगा। कोच्चि में आयोजित जलावतरण समारोह में, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने “एक स्वतंत्र, खुला और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र” में भारत की रुचि और श्री मोदी के ‘सागर’ या इस क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास के विचार को दोहराया। वैश्विक व्यापार, जो कि काफी हद तक समुद्र के रास्ते होता है, में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की भारत की महत्वाकांक्षा के लिहाज से भी एक मजबूत नौसेना बेहद अहम है। इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती हलचल और नई दिल्ली का अमेरिका के साथ नजदीकी सहयोग की पृष्ठभूमि में आईएनएस विक्रांत उल्लेखनीय तरीके से भारतीय नौसेना की मौजूदगी का अहसास कराता है। अब जबकि मिग-29 लड़ाकू विमानों को विक्रांत के हवाई बेड़े में शामिल कर लिया जाएगा, भारतीय नौसेना ने फ्रांस के राफेल एम या अमेरिका के एफ/ए-18 सुपर हॉर्नेट विमानों की खरीद में गहरी दिलचस्पी दिखाई है। इसके लिए इस युद्धपोत में ऐसे संरचनात्मक बदलावों की जरूरत होगी, जो सामरिक लिहाज से अधिक कुशल इन विमानों को इसके डेक से उड़ान भर सकने में सक्षम बनाए। इस बीच, दो इंजन वाला डेक-आधारित अपना लड़ाकू विमान विकसित करने की भारत की योजना अभी भी उसके लिए दूर की कौड़ी बनी हुई है। अब हमारा ध्यान और प्राथमिकता लड़ाकू जेट विमान की पहेली को हल करने की तरफ होनी चाहिए। साथ ही, दूसरे स्वदेशी विमानवाहक पोत के निर्माण के बारे में भी निर्णय लिया जाना चाहिए ताकि विक्रांत के निर्माण के क्रम में हासिल हुई विशेषज्ञता यूं ही रणनीतिक अदूरदर्शिता की भेंट न चढ़ जाए।
This editorial has been translated from English which can be read here.