सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के ताजा आधिकारिक अनुमान सामान्य परिस्थितियों में खुशी का सबब होते, क्योंकि वे साफ तौर पर मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक उत्पादन के दहाई अंकों में पहुंचने की ओर इशारा करते हैं। हालांकि, पिछले साल की अप्रैल-जून की तिमाही के मुकाबले इस साल इसी अवधि में जीडीपी में 13.5 फीसदी के इजाफे का राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) का यह अनुमान भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पिछले महीने के 16.2 फीसदी की दर से बढ़ने के अनुमान की तुलना में निराशाजनक रूप से धीमा है। इससे एक ऐसी अर्थव्यवस्था का इशारा मिलता है, जो अभी अपने पैर मजबूती से जमाने की जद्दोजहद में है। उपभोक्ताओं के भरोसे को डिगाने वाली स्वीकार्य से भी तेज रफ्तार से बढ़ती मुद्रास्फीति के रहते वैश्विक मंदी के संकेत और यूक्रेन युद्ध के साये में हासिल हुई पहली तिमाही की यह जबरदस्त रफ्तार अर्थव्यवस्था के विकास को एक बेहद ही उबड़ - खाबड़ रास्ते में डाल सकती है। सम्मिलित रूप से सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) में योगदान करने वाले आठ बड़े क्षेत्रों के प्रदर्शन से यह पता चलता है कि जहां साल-दर-साल सभी क्षेत्रों में विस्तार हुआ, वहीं इनमें से छह क्षेत्र क्रमिक सिकुड़न के शिकार हुए। सार्वजनिक प्रशासन, रक्षा तथा अन्य सेवाओं में 26.3 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। केवल दो सेवा क्षेत्रों - बिजली, गैस, पानी एवं अन्य उपयोगिता सेवाओं और वित्तीय एवं व्यावसायिक सेवाओं ने जनवरी-मार्च की तिमाही के मुकाबले इस तिमाही में क्रमशः 12.6 फीसदी और 23.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की। कृषि, विनिर्माण, भवन - निर्माण और सघन रूप से लोगों के मिलने - जुलने वाले व्यापार, होटल एवं परिवहन सेवा जैसे रोजगार प्रदान करने वाले प्रमुख क्षेत्रों को तिमाही-दर-तिमाही क्रमशः 13.3 फीसदी, 10.5 फीसदी, 22.3 फीसदी और 24.6 फीसदी की सिकुड़न का सामना करना पड़ा।
मांग पक्ष की हकीकत बहलाने – फुसलाने वाली है। निजी अंतिम उपभोग व्यय, जोकि किसी अर्थव्यवस्था का एक जरूरी मानक होता है, 25.9 फीसदी के साल-दर-साल विस्तार के साथ फिर से पटरी पर लौट रहा है जिससे जीडीपी में इसका हिस्सा बढ़कर करीब 60 फीसदी तक पहुंच गया है। हालांकि अगर क्रमिक रूप से देखा जाए, तो अप्रैल-जून 2022 में 22.08 लाख करोड़ रुपये के निजी उपभोग व्यय के अनुमान की तुलना में 54,000 करोड़ रुपये का निजी उपभोग व्यय बेमानी नहीं है या यह पूर्ववर्ती तिमाही में किए गए व्यय से 2.4 फीसदी कम है। सरकारी खर्च तथा सकल अचल पूंजी निर्माण, जिन्हें निजी निवेश के एक प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है, तिमाही-दर-तिमाही क्रमशः 10.4 फीसदी और 6.8 फीसदी तक सिकुड़ गया, जिससे समग्र उत्पादन में कमी आई। दरअसल, जीडीपी में क्रमिक रूप से 9.6 फीसदी का सिकुड़न हमारे नीति निर्माताओं के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। खासकर यह देखते हुए कि इस साल के मानसून के दौरान एक अनियमित और बिखरे हुए तरीके से बारिश हुई है। उत्तरी और पूर्वी भारत के धान एवं दलहन उगाने वाले प्रमुख क्षेत्र को जहां नमी की कमी साल रही है, वहीं देश के कुछ हिस्सों को विनाशकारी बाढ़ का कहर झेलना पड़ रहा है। इससे दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में कृषि उत्पादन और उपभोग व्यय, दोनों को झटका लगने की आशंका है। डॉलर के मुकाबले रुपये के अवमूल्यन से मिलने वाले लाभों के बावजूद विकसित अर्थव्यवस्थाओं में आई तेज मंदी के कारण वैश्विक व्यापार के भी शांत पड़ जाने की वजह से भारत के व्यापारिक निर्यात की गति में कमजोरी आना तय है। ऐसी स्थिति में भारतीय रिज़र्व बैंक को जहां मुद्रास्फीति को काबू करने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, वहीं वित्तीय मामलों से जुड़े अधिकारियों के कंधों पर उपभोग एवं निवेश को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी है।
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