स्थान, समय नहीं: निर्वाचन आयुक्तों के कार्यकाल का सवाल

मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों के लिए समान कार्यकाल की सुरक्षा निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता को बढ़ावा देगी

November 24, 2022 10:54 am | Updated 10:54 am IST

सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ के समक्ष चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक तटस्थ तंत्र की जरूरत के मसले पर चल रही सुनवाई चुनाव कराने वाली इस निकाय की कामकाज से जुड़ी आजादी को लेकर एक महत्वपूर्ण सवाल उठाती है। इस गणतंत्र की शुरुआत के बाद से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के मामले में भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) की प्रतिष्ठा आम तौर पर काफी ऊंची रही है। यह एक अलग बात है कि वह सत्तारूढ़ दल का पक्ष लेने के आरोपों से बच नहीं पाई है। हालांकि, निर्वाचन आयोग की आजादी को लेकर अदालत की मुखर चिंता के मद्देनजर, अब मौजूं सवाल यह है कि क्या निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति एक स्वतंत्र निकाय की सिफारिश पर की जानी चाहिए। अनुच्छेद 324(2) इस मकसद के लिए एक संसदीय कानून का प्रावधान तो करता है, लेकिन इस संबंध में अभी तक कोई कानून नहीं बनाया गया है। सरकार एक स्वतंत्र तंत्र, संभवतः एक ऐसी चयन समिति जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों, गठित करने के पक्ष में अदालत के स्पष्ट रूझान से सहमत नहीं दिखाई दे रही है और वह इसका दृढ़ता से विरोध कर रही है। यह कथित विधायी शून्यता अदालत को अपनी तरफ से एक प्रक्रिया तैयार करने का एक मौका दे सकती है। यह कुछ ऐसी स्थिति होगी जिससे सरकार बिल्कुल सही ही बचना चाहती है। इसमें कोई शक नहीं कि चयन करने वाली एक स्वतंत्र संस्था निर्वाचन आयोग की आजादी को बढ़ाएगी, लेकिन अदालत को यह तय करना होगा कि वह ऐसी संस्था की संरचना को खुद स्पष्ट करना चाहेगी या फिर इस मुद्दे को संसद पर छोड़ देना चाहेगी।

इस खंडपीठ का नेतृत्व कर रहे न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ ने कहा है कि हाल के दिनों के उलट अतीत में मुख्य निर्वाचन आयुक्तों (सीईसी) का कार्यकाल काफी लंबा रहा था। हालांकि, यह याद रखा जाना चाहिए कि 1993 से भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) एक बहु-सदस्यीय निकाय बन गया है, जिसमें एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त (अध्यक्ष) और दो निर्वाचन आयुक्त (ईसी) शामिल हैं। वर्तमान में ईसी की नियुक्ति करने और फिर उन्हें वरिष्ठता के आधार पर सीईसी के रूप में प्रोन्नत करने की परिपाटी है। दरअसल, यह ईसी की नियुक्ति की प्रक्रिया ही है जिसकी समीक्षा

करने की जरूरत है क्योंकि इसमें व्यक्तिगत सनक की भूमिका होने की पूरी गुंजाइश है। सीईसी का कार्यकाल छह साल का होता है, लेकिन 65 वर्ष की आयु पूरी होने पर उसे अपना पद छोड़ना होता है। अदालत ने इस उम्र के करीब वाले किसी व्यक्ति को सीईसी नियुक्त करने और इस वजह से उसका कार्यकाल संक्षिप्त होने के चलन पर सवाल उठाया है। हालांकि, यह तर्क दिया जा सकता है कि मुख्य न्यायाधीशों का कार्यकाल भी संक्षिप्त होता है, लेकिन इससे उनकी आजादी कम नहीं होती है। सरकार ने तर्क दिया है कि ईसीआई में एक सदस्य के पूरे कार्यकाल पर विचार किया जाना चाहिए, न कि सिर्फ सीईसी के रूप में उसके कार्यकाल की अवधि पर। असली मसला कार्यकाल की सुरक्षा का है, जोकि कामकाज संबंधी आजादी और आयोग में उपयुक्त स्थान से सुनिश्चित हो सकता है। जबकि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को कार्यकाल की सुरक्षा हासिल होती है। उन्हें सिर्फ संसद द्वारा महाभियोग के जरिए हटाया जा सकता है। सिर्फ सीईसी को ही ऐसा दर्जा हासिल है। जबकि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर चुनाव आयुक्त को हटाया जा सकता है। नियुक्ति की प्रक्रिया चाहे कोई भी हो, लेकिन निर्वाचन आयुक्त को भी उसी किस्म के कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करने का सवाल काफी महत्वपूर्ण है।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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