नया मौका

विधेयक को वापस लेने का फैसला, इसकी खामियों को दूर करने का एक मौका है, लेकिन डेटा सुरक्षा कानून में देरी नहीं होनी चाहिए

August 06, 2022 09:57 am | Updated August 15, 2022 11:57 am IST

निजी डेटा सुरक्षा विधेयक, 2019 को वापस लेने के पीछे सरकार ने यह कारण दिया कि वह डेटा की गोपनीयता और इंटरनेट विनियमन पर  एक “व्यापक कानूनी ढांचा“ लाएगी। सरकार ने जोर देकर कहा कि नया मसौदा, गोपनीयता के सिद्धांतों और सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अनुरूप होगा, जो न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले में निजता को लेकर सुनाए गए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले पर आधारित होगी। साथ ही, इसमें डिजिटल इकोसिस्टम के विनियमन के लिए संसद की संयुक्त समिति की सिफ़ारिशों को शामिल करने पर भी विचार किया जाएगा। राष्ट्रीय सुरक्षा की बात पर बहुत ज़्यादा जोर दिए जाने के अलावा और भी कई वजहों से, 2018 में विधेयक का मसौदा लिखने वाली समिति के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्णा समेत कई हितधारकों ने 2019 के इस विधेयक की वाज़िब ही आलोचना की है। डेटा से जुड़े सिद्धांतों की रक्षा की जिम्मेदारी संभालने वाले डेटा सुरक्षा प्राधिकरण (डीपीए) के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों के चयन के जो नियम श्रीकृष्ण समिति के मसौदे में बनाए गए थे, 2019 के विधेयक में वे बदल दिए गए। साथ ही, केंद्र सरकार ने अपनी एजेंसियों के ऊपर इस अधिनियम के न लागू होने की छूट दे दी है। 2018 के मसौदा विधेयक में डीपीए की चयन प्रक्रिया में न्यायिक निरीक्षण की अनुमति थी, लेकिन 2019 के विधेयक ने पूरी संरचना को कार्यपालिका तक ही सीमित कर दिया। 2018 के विधेयक में सरकारी संस्थानों को डेटा के सिद्धांतों के तहत, सिर्फ “देश की सुरक्षा” से जुड़े मामलों में ही डेटा प्रोसेस करने की छूट दी गई थी। इसमें “बिना सहमति के निजी डेटा ऐक्सेस करने के लिए, संसदीय निरीक्षण और न्यायिक अनुमोदन“ हासिल करने के लिए एक क़ानून बनाने का भी आह्वान किया गया था। इसके उलट, 2019 के विधेयक में सरकारी एजेंसियों को अधिनियम से छूट देने के कारण के रूप में “सार्वजनिक व्यवस्था” शब्द भी जोड़ दिया गया। इसमें, इस कारण को सिर्फ लिखित रूप से दर्ज करने का प्रावधान रखा गया। 

विधेयक को वापस लेने के फैसले से यह स्पष्ट नहीं हो रहा है कि सरकार, नागरिक समाज के साथ व्यापक विचार-विमर्श के बाद तैयार किए गए 2018 के मसौदा विधेयक के प्रावधानों के  मुताबिक इस कानून को नए सिरे से व्यवस्थित करने की मांग को मंजूरी देगी या फिर, इस कानून को जेपीसी रिपोर्ट के मुताबिक ढाला जाएगा। सरकार को पर्याप्त सुरक्षा प्रावधानों को अपनाए बगैर, नागरिकों के निजी डेटा हासिल करने के अधिकार का प्रावधान होने की वजह से नागरिक समाज ने इस रिपोर्ट की काफी आलोचना की थी। उदाहरण के लिए, कांग्रेस सांसद जयराम रमेश द्वारा जेपीसी रिपोर्ट में दर्ज किए गए असहमति नोट में सरकार को दी गई छूट की आलोचना की गई कि कैसे “देश की सुरक्षा” के बजाए “सार्वजनिक व्यवस्था” के आधार पर इसका दुरुपयोग हो सकता है। यह स्पष्ट नहीं है कि विधेयक वापस लेने की वजह, अनिवार्य रूप से “डेटा के स्थानीयकरण” के नियमों का बहुराष्ट्रीय इंटरनेट कंपनियों की तरफ से हो रहे विरोध से जुड़ी है या नहीं। हालांकि, बड़े देशों से तुलना करें तो भारत में डेटा सुरक्षा से जुड़े ठोस कानून का नहीं होना, एक बड़ी विसंगति है। अगर, सरकार वाकई डेटा गोपनीयता और सुरक्षा पर एक व्यापक कानूनी ढांचा लाना चाहती है, तो उसे न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा समिति की सिफारिशों की आधाररेखा की तरफ़ लौटना चाहिए और उचित समय सीमा के अंदर एक कानून बनाना चाहिए। 

This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.

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