बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के मौजूदा भारत दौरे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी बैठक के सकारात्मक नतीजे सामने आए हैं। इस दौरान दोनों देशों के बीच सात समझौते हुए। इनमें बीते 26 वर्षों में पहली बार जल बंटवारा समझौते को अंजाम दिया गया, मुक्त व्यापार समझौता वार्ता की शुरुआत हुई और बुनियादी ढांचा, खासकर रेलवे की कई परियोजनाओं पर करार हुआ। बारह वर्षों में पहली बार हुई संयुक्त नदी आयोग की बैठक से पहले कुशियारा पर हुआ जल बंटवारा समझौता, जल प्रबंधन के मसले को हल करने की दिशा में एक उम्मीद जगाने वाली पहल है। सीमा के दोनों तरफ बहने वाली 54 नदियों से जुड़ा यह काफी विवादित मसला है। एक तरफ, फेनी नदी से अंतरिम अवधि में 1.82 क्यूसेक पानी की निकासी जैसे छोटे समझौते हुए, वहीं 1996 की गंगा जल संधि के बाद ऐसा पहली बार हुआ जब कुशियारा समझौते के लिए असम समेत पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों को मनाने में केंद्र सरकार कामयाब रही। हालांकि, पश्चिम बंगाल द्वारा अड़ंगा लगाए गए 2011 के तीस्ता समझौते पर अब भी कोई स्पष्टता नहीं बन पाई है, जिसका जिक्र श्रीमती हसीना ने कई बार किया। अगर तीस्ता नदी समझौते के करार को अंतिम रूप देना है, तो निश्चित तौर पर मोदी सरकार को इस दिशा में और ज्यादा कोशिश करनी होगी और ममता बनर्जी की पश्चिम बंगाल सरकार को ज्यादा लचीलापन दिखाना पड़ेगा। यह समयरेखा श्रीमती हसीना के लिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि तीन कार्यकाल पूरे करने के बाद अगले साल के अंत में उन्हें फिर से चुनाव में उतरना है। उनका ज्यादा जोर भारतीय उद्योग जगत से निवेश को आकर्षित करने पर था, जिसकी हिस्सेदारी बांग्लादेश के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में इस वक्त बहुत कम है। श्रीमती हसीना ने भारतीय कंपनियों के लिए दो समर्पित विशेष आर्थिक क्षेत्रों का विशेष उल्लेख किया, जो मोंगला और मीरसराय में बनने वाले हैं।
उनकी 2017 की भारत यात्रा और 2021 में श्री मोदी की बांग्लादेश यात्रा के बाद हुए श्रीमती हसीना के इस दौरे ने भारत-बांग्लादेश संबंधों को एक मजबूत आधार दिया है। साथ ही व्यापार, संचार और दोनों मुल्कों के अवाम के बीच मजबूत संबंध बनाने की दिशा में भी यह एक जरूरी पहल है। हालांकि सकारात्मक संबंधों का यह सिलसिला काफी पहले उस वक्त शुरू हुआ, जब 2009 में श्रीमती हसीना ने सत्ता में आने के बाद आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को बंद करने और 20 से ज्यादा वांछित अपराधियों एवं संदिग्ध आतंकवादियों को भारत को सौंपने का एकतरफा फैसला लिया था। अब यह, ऐसे फैसलों और घटनाक्रमों से लाभ पाने वाली नई दिल्ली के ऊपर निर्भर है कि विरोधी से मित्र बने इस पड़ोसी देश की चिंताओं के प्रति वह समान रूप से संवेदनशीलता दिखाए। इस संदर्भ में सत्ताधारी दल के नेताओं की तरफ से रोहिंग्या शरणार्थियों को निकाल फेंकने, जिन प्रवासियों का दस्तावेजों में नाम नहीं है उनकी तुलना “दीमक” से करने, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, और हाल ही में बांग्लादेश को “अखंड भारत” का हिस्सा बनाने जैसी मिसालों को देखा जा सकता है। दक्षिण एशियाई देशों में राजनीतिक बयानबाजियों में सीमा पार के बेतरह हवाले का खासा दबदबा रहता है। ऐसे में, नई दिल्ली और ढाका के लिए यह बहुत जरूरी है कि वह भविष्य के सहयोग पर ध्यान केंद्रित करें जिसकी बुनियाद उस अतीत की भागीदारी पर टिकी हो जिसे “1971 की भावना” कहा जाता है।
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