खात्मा ही रास्ता है: मौत की सजा के बारे में उच्च न्यायपालिका के कदम

मुद्दा सिर्फ मौत की सजा के अमल का तरीका नहीं, बल्कि खुद यह सजा ही है

March 23, 2023 11:16 am | Updated 11:16 am IST

कैदियों को फांसी देने के तरीके को बहुत क्रूर या बर्बर नहीं मानने के चालीस साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने अब यह पता लगाने का निर्णय लिया है कि क्या मौत की सजा देने का कोई और ज्यादा गरिमापूर्ण एवं कम दर्दनाक तरीका हो सकता है। अमल का एक वैकल्पिक तरीका खोजने का विचार इस व्यापक बहस का हिस्सा रहा है कि क्या मौत की सजा को समाप्त नहीं कर दिया जाना चाहिए। मौत की सजा के अमल के मौजूदा तरीके को अपेक्षाकृत कम दर्दनाक माना जाता है और इसमें कम क्रूरता शामिल होती है। न्यायिक और प्रशासनिक महकमे की सोच मौत की सजा के विचार और फांसी की प्रथा, दोनों का समर्थन करने की ओर झुकी हुई है। अदालत की खंडपीठ ने अमल का और ज्यादा मानवीय साधन खोजे जाने के तर्क को पुख्ता करने के लिए नए आंकड़े मांगे हैं। इस मुद्दे पर दो फैसले उपलब्ध हैं - बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980), जिसने मौत की सजा को बरकरार रखा, लेकिन इसे ‘दुर्लभतम मामलों’ तक सीमित कर दिया और दीना दयाल बनाम भारत संघ एवं अन्य (1983), जिसने यह फैसला देकर मौत की सजा देने की इस विधि को बरकरार रखा कि फांसी “जितना संभव हो उतना दर्द रहित” है और इसमें “किसी अन्य ज्ञात विधि की तुलना में अधिक दर्द नहीं होता है”। विधि आयोग (1967) की 35वीं रिपोर्ट में यह कहा गया था कि भले ही बिजली के झटके, गैस चैंबर के इस्तेमाल और घातक इंजेक्शन को कुछ लोगों ने कम दर्दनाक माना है, लेकिन यह आयोग किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की स्थिति में नहीं है। आयोग ने किसी भी बदलाव की सिफारिश करने से परहेज किया।

भले ही सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा के खात्मे का समर्थन नहीं किया है, लेकिन इसने एक ऐसा मजबूत और मानवीय न्यायशास्त्र विकसित किया है जिसने कार्यपालिका के लिए मौत की सजा पर अमल करना मुश्किल बना दिया है। अदालत ने इसके इस्तेमाल को ‘दुर्लभतम मामलों’ तक सीमित कर दिया है, किसी को फांसी के तख्ते पर भेजने से पहले उत्तेजित एवं कम करने वाली परिस्थितियों के बीच संतुलन अनिवार्य कर दिया है और अपील के बाद समीक्षा की खुली अदालत में सुनवाई की इजाजत दी है। साथ ही, इसने क्षमादान का न्यायशास्त्र विकसित किया है जो दया याचिकाओं पर फैसलों को वाद-योग्य बनाता है और मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलकर दया याचिकाओं के निपटारे में की गई अनुचित देरी को दंडित करता है। अदालत के सामने आया यह सवाल अब उसे अपने नजरिए को और ज्यादा मानवीय बनाने का

एक और मौका मुहैया कराता है। अनुभवजन्य साक्ष्य बताते हैं कि फांसी से जल्दी या दर्दनाक मौत नहीं होती है, जबकि ढेरों ऐसे सबूत हैं जो दर्शाते हैं कि बिजली के झटके और घातक इंजेक्शन में क्रूरता के अपने रूप होते हैं। केंद्र सरकार का यह तर्क है कि फांसी को न सिर्फ इसलिए बरकरार रखा जाना चाहिए कि यह विधि क्रूर या अमानवीय नहीं है, बल्कि इसे इसलिए भी जारी रखा जाना चाहिए कि इसमें गलत तरीके से किए गए अमल की संख्या सबसे कम है। हालांकि, असली मुद्दा यह है कि इसके अमल का कोई भी तरीका मानवीयता के स्तर से नीचे गिरना है और यह मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचाता है तथा क्रूरता को बढ़ावा देता है। अमल के तरीके पर बहस करना सिर्फ इस नैतिक दुविधा को ही गहरा करता है कि क्या जिंदगी लेने का सबसे अच्छा जवाब जिंदगी लेना ही है। अगर क्रूरता और अपमान को समाप्त करना मकसद है, तो मौत की सजा का खात्मा ही सही उपाय है।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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