न्यायिक निर्णयों में किसी तरह की विसंगति को नियमों के असमान प्रयोग के रूप में देखा जाना तय है। समानता के सिद्धांत के आधार पर, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्वकर्ता हेमंत सोरेन को अंतरिम जमानत का हकदार होना चाहिए, ताकि वह अपने गृह राज्य में आम चुनाव के अगले चरणों (20 मई व उसके बाद) के लिए प्रचार कर सकें। सोरेन को 31 जनवरी को गिरफ्तार किया गया था। अभी पिछले हफ्ते ही सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को चुनाव खत्म होने तक जमानत देते हुए आम चुनाव के महत्व पर रोशनी डाली। अदालत की राय “प्रश्नाधीन व्यक्ति और इर्द-गिर्द के हालात की विलक्षणता” पर आधारित थी, लेकिन इस फैसले से यह सिद्धांत सामने आया कि चुनावी लोकतंत्र के हित में प्रमुख नेताओं को प्रचार करने की इजाजत दी जा सकती है। हालांकि, सोरेन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह रुख अपनाया कि पहले उसे दूसरे पक्ष यानी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को सुनने की जरूरत है। उसने 20 मई से शुरू हो रहे हफ्ते में सुनवाई करनी चाही, लेकिन फिर और पहले की तारीख, 17 मई के लिए मान गया। दरअसल यह एक कानूनी जरूरत है कि अभियोजन की आपत्तियों को सुनने के बाद ही जमानत का कोई आदेश दिया जा सकता है। केजरीवाल के मामले में, शीर्ष अदालत ने यह दलील सुनी और खारिज कर दी कि राजनीतिक नेताओं को चुनाव के दौरान महज प्रचार के लिए रिहा करना, इसी तरह के अपराधों में गिरफ्तार अन्य श्रेणी के लोगों पर राजनीतिक वर्ग को विशेषाधिकार देने के बराबर होगा।
सोरेन की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली याचिका पर झारखंड हाईकोर्ट ने दो महीने तक फैसला नहीं दिया, जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट पहुंचने में देरी हुई। हाईकोर्ट ने आखिरकार 3 मई को उनकी अर्जी खारिज करने का आदेश दिया, जबकि उसने अपना फैसला 28 फरवरी को ही सुरक्षित रख लिया था। यह सही है कि किन्हीं दो मामलों की तुलना नहीं की जा सकती है। दिल्ली के मुख्यमंत्री कुछ विनिर्माताओं के लिए अनुकूल आबकारी नीति अपनाने के बदले रिश्वत के आरोप का सामना कर रहे हैं, जबकि सोरेन पर रांची में संपत्ति अर्जित करने के लिए एक भूखंड की अवैध बिक्री में अपराध से हासिल धन के शोधन का आरोप है। अभियोजन केजरीवाल के खिलाफ मुख्य रूप से सरकारी गवाहों के बयानों के सहारे है, जबकि सोरेन के खिलाफ वह दस्तावेजी सबूतों पर निर्भर कर रहा है। इसे देखते हुए, उनके मामलों के गुण-दोष में फर्क हो सकता है। धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) में जमानत के प्रावधान बहुत कठोर हैं। इसका खामियाजा यह है कि अदालतों को जमानत के चरण में ही किसी मामले के समग्र गुण-दोष पर विचार करना पड़ रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जमानत मुचलकों (सबूतों को महफूज रखने और आरोपियों को इंसाफ से भागने से रोकने के लिए आवश्यक शर्तों के साथ) पर आरोपियों की रिहाई का अपेक्षाकृत सरल काम राजनीतिक रूप से संवेदनशील हो गया है। चुनाव के समय कैद से प्रभावित पार्टियों के लिए मैदान प्रतिकूल हो जाता है, जो लोकतांत्रिक भावना पर विपरीत असर डालता है।
Published - May 16, 2024 09:54 am IST