बेंजामिन नेतन्याहू ने पिछले साल दिसंबर में जब इजरायल के प्रधानमंत्री के रूप में अपने मौजूदा कार्यकाल की शुरुआत की थी, तो उन्होंने देश की 37वीं सरकार की ओर से चार मुख्य लक्ष्य सामने रखे: ईरान को घेरना; इज़राइल में सुरक्षा और सुशासन बहाल करना; महंगाई से निपटना; और (अरब देशों के साथ) “शांति के घेरे” को बढ़ाना। लेकिन, पिछले चार महीनों से उनकी सरकार का इकलौता जोर नेसेट (संसद) में न्याय व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाने वाले विधेयकों को पारित कराने पर था, जिसको लेकर अभूतपूर्व विरोध का सिलसिला शुरू हो गया। इजरायली पैमानों के हिसाब से वहां की संसद में बहुमत से सरकार चलाने वाले गठबंधन के नेता, श्री नेतान्याहू ने शुरुआत में इन विधेयकों को पारित कराने के लिए काफी जोर लगाया। हालांकि, जैसे-जैसे विरोध बढ़ता गया, विद्रोह भड़क उठा। जब रक्षा मंत्री योआव गैलेंट ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए इन विधेयकों को टालने की बात कही, तो श्री नेतान्याहू ने उन्हें पद से बर्खास्त कर दिया, लेकिन पानी तब तक सिर के ऊपर आ चुका था। इन प्रदर्शनों और अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ देने वाली हड़तालों के बीच, सोमवार को प्रधानमंत्री ने यह कहते हुए इन विधेयकों को टालने की घोषणा की कि वह इजरायल को गृहयुद्ध में नहीं धकेलना चाहते। इससे पहले, राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतामार बेन-गवीर ने प्रधानमंत्री को “अराजकतावादियों के सामने आत्मसमर्पण” न करने की चेतावनी दी। साथ ही, ऐसा करने पर उन्होंने गठबंधन छोड़ने की धमकी दी। हालांकि, श्री नेतान्याहू फिलहाल अपने गठबंधन को बनाए रखने में कामयाब रहे हैं। यहूदी चरमपंथी श्री बेन-गवीर का समर्थन सुनिश्चित करने के लिए, मंत्रीमंडल नेशनल गार्ड को भी उनके मंत्रालय के अधीन करने का फैसला ले सकता है।
सन् 1996 में पहली बार शिमोन पेरेज को हराकर सत्ता में आए नेतान्याहू ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। फिर भी, मौजूदा संकट यकीनन उनके लिए सबसे चुनौतीपूर्ण है। श्री नेतान्याहू के देखते-देखते इजरायली राजनीति नाटकीय रूप से धुर दक्षिणपंथ की ओर मुड़ गई। इसका नतीजा मौजूदा सरकार के रूप में सामने है, जिसमें दक्षिणपंथी (लिकुड), धार्मिक (शास और संयुक्त तोराह जूडाइज्म) और धुर दक्षिणपंथी (रेलिजियस जियोनिस्ट और ओज्मा येहुदित) पार्टियां शामिल हैं। चरम दक्षिणपंथी लंबे समय से यह तर्क देते आए हैं कि मौजूदा न्यायिक ढांचा, देश को उसकी असली यहूदी पहचान हासिल करने से रोक रहा है। इसी क्रम में सुनियोजित तरीके से न्यायिक सुधार से जुड़े ये विधेयक लाए गए। इनमें यह प्रावधान किया गया कि न्यायिक
नियुक्तियां करने और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को रद्द करने की शक्तियां संसद के पास होंगी। फिलीस्तीन पर कब्जा करने या बाहरी खतरों का मुकाबला करने के मामले में श्री नेतान्याहू और उनके सहयोगियों के पक्ष को इजरायल में व्यापक समर्थन हासिल रहा है, लेकिन अपनी मुट्ठी में और ज्यादा शक्तियां बटोरने के उनके कदम के खिलाफ, रक्षा प्रतिष्ठान समेत समाज के अलग-अलग हलकों में व्यापक प्रतिरोध शुरू हो गया। विधेयकों को निलंबित करके श्री नेतन्याहू ने सिर्फ इस संकट को टाला है। इसका असर पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि रायशुमारी करके महीने भर बाद वे इन विधेयकों को नेसेट में वापस लौटा देंगे। हालांकि, यह साफ नहीं है कि ऐसे ध्रुवीकरण वाले मुद्दे पर वह राष्ट्रव्यापी समहति कैसे हासिल करेंगे जिनके खिलाफ राजनयिकों तक ने हड़ताल की हो। अलबत्ता, उन्हें अपने सहयोगियों को समझाना चाहिए कि सरकार के सामने गहरा संकट है। साथ ही, उन्हें न्यायपालिका को पूरी तरह कमजोर करने की इस योजना को छोड़ देना चाहिए और इजरायल के सामने मौजूद बड़ी चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.