संदिग्ध चाल: कर्नाटक में आरक्षण नीति में बदलाव

चुनाव से पहले आरक्षण कोटे से छेड़छाड़ राजनीतिक मंशा से प्रेरित जान पड़ता ह

March 29, 2023 10:37 am | Updated 10:37 am IST

राजकाज के दायित्वों में समाज के किसी भी वर्ग के हितों को प्रभावित किए बिना समायोजन और समावेशन के प्रतिस्पर्धी मांगों का प्रबंधन करना शामिल है। हालांकि कुछ शासक, मसलन कर्नाटक में, बहुसंख्यकों का समर्थन हासिल करने की उम्मीद में एक अल्पसंख्यक समूह के साथ भेदभाव करते हुए दिखना चाहते हैं। कर्नाटक सरकार का अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणी के भीतर मुसलमानों के लिए निर्धारित चार फीसदी कोटा खत्म करने और वोक्कालिगा एवं वीरशैव-लिंगायत जैसे प्रमुख समुदायों में से प्रत्येक के लिए अतिरिक्त दो फीसदी कोटा निर्धारित करने का फैसला चुनावी लाभ की उम्मीद में खेला गया एक विभाजनकारी जुआ है। भाजपा शासन ने अनुसूचित जाति (एससी) श्रेणी के तहत विभिन्न दलित समुदायों के लिए आंतरिक आरक्षण शुरू करने के लिए चार उप-श्रेणियां भी बनाई हैं। मुसलमानों के लिए निर्धारित आरक्षण के खात्मे का यह कदम 2015 में महाराष्ट्र में मुसलमानों के लिए निर्धारित पांच फीसदी कोटा को खत्म करने की याद दिलाता है। मुसलमान समुदाय के गरीब सदस्यों को अब ‘आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग’ के लिए निर्धारित 10 फीसदी कोटा के लिए सामान्य वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा करनी होगी। खालिस धर्म के आधार पर आरक्षण भले ही असमर्थनीय है, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि मुसलमानों के लिए निर्धारित आरक्षण संबंधी लाभ को वापस लेने के लिए कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की ओर से कोई सिफारिश नहीं की गई है। भाजपा ने 1995 में मुसलमानों के लिए आरक्षण की शुरुआत को अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के एक उदाहरण के रूप में चित्रित किया है।

यह वाकई सच है कि संविधान सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता है और मुस्लिम समुदाय में व्याप्त पिछड़ेपन की सीमा के बारे में एक उपयुक्त अध्ययन द्वारा समर्थित नहीं होने की वजह से उनके लिए निर्धारित कोटा को खत्म करने वाले कई न्यायिक फैसले हुए हैं। हालांकि, प्रासंगिक मानदंडों के आधार पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच पहचान किए गए पिछड़े वर्गों को आरक्षण का लाभ देना संभव है। कुछ राज्य मुसलमानों को पिछड़ा वर्ग (बीसी) की सूची में शामिल करके उनके लिए शैक्षणिक संस्थानों के साथ-साथ सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण लागू कर रहे हैं। यह तर्क देना फिजूल होगा कि मुसलमानों का बड़ा वर्ग सामाजिक और शैक्षिक उन्नति के उस स्तर पर पहुंच गया है कि बीसी श्रेणी से उन्हें हटाया जाना उचित है या यह कि सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व कम नहीं है। मुस्लिम नेताओं और संगठनों ने जहां

आरक्षण को खत्म करने के इस फैसले का विरोध किया है, वहीं अनुसूचित जाति समुदायों का वर्गीकरण भी विवादास्पद है। दलित समुदाय के विभिन्न वर्ग 17 फीसदी एससी कोटा को विभिन्न समूहों के बीच पुनर्व्यवस्थित करने के खिलाफ हैं। चुनाव से पहले आरक्षण नीति को बदलने जैसे बड़े फैसले न सिर्फ संदिग्ध हैं, बल्कि ये अवांछित आग को भी भड़का सकते हैं।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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