नरेन्द्र मोदी की राजनीति की मुख्य विशेषताओं में से एक है, निर्लज्ज ढंग की दक्षिणपंथी बयानबाजी पर उनकी निर्भरता। जनता की भावनाओं के दोहन की राजनीति, अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरती भाषण और ‘डॉग विसल’ (ऐसे राजनीतिक संदेश जिनका मकसद अपने जनाधार के कट्टर तबकों को खुश करना होता है) का इस्तेमाल इसी से जुड़े हुए हैं। रविवार को, इन तीनों पहलुओं का उस वक्त खुला प्रदर्शन हुआ जब नरेन्द्र मोदी ने दावा किया कि कांग्रेस पार्टी भारतीयों की संपत्ति को मुसलमानों के बीच बांट देगी और वे “बड़ी संख्या में बच्चों” वाले लोग और “घुसपैठिये” हैं। उन्होंने यह भी कहा कि उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह का वक्तव्य था कि “मुसलमानों का देश के संसाधनों पर पहला अधिकार है”। इनमें से कोई भी कथन सच्चाई के करीब नहीं है। अपने घोषणापत्र में, कांग्रेस ने सकारात्मक कार्रवाई को मजबूत करने के लिए एक सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना का वादा किया है। साथ ही, गरीबों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बीच फाजिल जमीन के वितरण की निगरानी के लिए एक प्राधिकरण स्थापित करने का वादा किया है। ऐसे स्वतंत्र सर्वेक्षण मौजूद हैं जो यह इंगित करते हैं कि भाजपा शासन के 10 सालों में किस तेजी से संपत्ति में गैर-बराबरी बढ़ी है। करों में कटौती के जरिए कॉरपोरेट घरानों को कर राहत की सरकारी नीतियों, अप्रत्यक्ष करों पर ज्यादा निर्भरता और कुल कर में कॉरपोरेट कर (46.5 फीसदी) के मुकाबले व्यक्तिगत कर की ज्यादा बड़ी हिस्सेदारी (53.3 फीसदी) का नतीजा संपत्ति के स्वामित्व में बड़े असंतुलन के रूप में सामने आया है।
वर्ष 2006 में डॉ. सिंह ने कहा था कि उनकी सरकार को ऐसी योजनाओं को प्राथमिकता देने की जरूरत है जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), महिलाओं और अल्पसंख्यक वर्गों खासकर मुसलमानों का उत्थान करें। और जैसा भारत का समाज है, उसमें हाशिए पर पड़े लोगों का संसाधनों पर पहला दावा है। उसी समय से, इस बयान को हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी खेमे एवं मोदी ने तोड़ा-मरोड़ा है और एक बार फिर इसका सहारा लिया है। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि मुसलमानों में प्रजनन दर हिंदुओं के करीब है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जनगणना में बेवजह देरी की है। यह सभी वर्गों में प्रजनन दर में आयी बड़ी गिरावट को दिखा सकती है जिस तरह पहले की जनगणनाओं और एनएफएचएस जैसे दूसरे भरोसेमंद सर्वेक्षणों ने दिखाया है। “घुसपैठिया” एक भद्दा शब्द है जिसका इस्तेमाल अक्सर ‘डॉग विसल’ के रूप में किया जाता है। तथ्य आसानी से उपलब्ध हैं और भलीभांति ज्ञात हैं, लेकिन यह भावनाएं भड़काने वालों को उन्माद फैलाने से नहीं रोक पाया है। दुखद है कि भारत का सार्वजनिक दायरा एक दशक से झूठी सूचनाओं से दूषित है। इस तरह की बयानबाजी का प्रभाव बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया और टीवी चैनलों के इस्तेमाल ने भावनाएं भड़काने वालों को गलत साबित होने के डर से बेपरवाह बना दिया है। इसके अलावा, भाजपा जैसी पार्टियां सामाजिक न्याय और समतावाद के उन पहलुओं के प्रति असहज रही हैं जिसमें पुनर्वितरण शामिल है। और यह इस बात की व्याख्या करता है कि उसके द्वारा ‘अन्य समूहों’ के दानवीकरण का इस्तेमाल समता और जातिवाद व सामाजिक आलोड़न से जुड़े सवालों से ध्यान भटकाने के एक तरीके के रूप में किया जाता है।