देश के प्रमुख थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) लाइसेंस को निलंबित करने का भारत सरकार का निर्णय सैद्धांतिक और धारणात्मक दोनों ही स्तरों पर खराब है। अधिकारियों द्वारा जिन कारणों का हवाला दिया जा रहा है, उनमें सीपीआर के कर्मचारियों की आयकर संबंधी कागजी कार्रवाई में चूक, लेखाबही में उचित प्रक्रिया की कमी और पुस्तकों के प्रकाशन के लिए धन का बेज़ा उपयोग शामिल है, जो अधिकारियों का आरोप है कि सीपीआर के उद्देश्यों का हिस्सा नहीं है। इस पूरी कवायद में प्रतिष्ठित संस्थान को कानूनी प्रक्रियाओं के दलदल में घसीटने की उत्सुकता साफ झलक रही है। सीपीआर सरकारों, सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के सहयोग से शासन में सुधार और अन्य चीजों के साथ राज्य की क्षमता बढ़ाने पर काम कर रहा है। ऐसे कई समर्थक समूह और अभियान हैं जिन पर पिछले कुछ दिनों के दौरान सरकारी कार्रवाई की गाज गिरी है, लेकिन सीपीआर के खिलाफ कार्रवाई सत्ता प्रतिष्ठान के लिहाज से सहिष्णुता की सीमा में अप्रत्याशित गिरावट का संकेत है। यह सभी प्रकार के ज्ञान सृजन के प्रति एक अकथनीय शत्रुता को दर्शाता है। एफसीआरए यह सुनिश्चित करने का एक एक नियामक तंत्र है कि विदेशी निहित स्वार्थी तत्व भारत की घरेलू राजनीति को अनावश्यक रूप से प्रभावित न कर सकें, लेकिन इस कानून के व्यापक इस्तेमाल से गैर-सरकारी क्षेत्र को पंगु बना देने की कार्रवाई अविवेकपूर्ण प्रतिशोध को दर्शाती है।
भारत की नई शिक्षा नीति में देश में उच्च शिक्षा और अनुसंधान के स्तर को बढ़ाने के लिए भारतीय एवं वैश्विक संस्थानों के बीच शैक्षणिक आदान-प्रदान और सहयोग की परिकल्पना की गई है। भारत तकनीकी उत्कृष्टता और विनिर्माण के केंद्र के रूप में भी उभरना चाहता है। हाल ही में दो ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालयों ने भारत में परिसर स्थापित करने की अपनी योजना की घोषणा की, लेकिन सीपीआर पर प्रतिबंध जैसी राज्य की असुरक्षाबोध से उपजी प्रतिक्रियावादी कार्रवाइयां भारत की ऐसी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के आड़े आ रही हैं। दुनिया के साथ सहयोग के लिए दोनों दिशाओं में सूचना, कर्मियों और धन के प्रवाह की आवश्यकता होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों से इन सभी पर प्रतिबंध हर जगह नियम का हिस्सा है, और स्वीकार्य भी है, लेकिन इनका प्रयोग कम से कम किया जाना चाहिए। यह मानना कि भारतीय सोच को विदेशी सोच से काटकर रखा जाना चाहिए और साथ ही अंतरराष्ट्रीय प्रौद्योगिकी एवं पूंजी प्रवाह की तलाश भी की जानी चाहिए, एक विरोधाभास है। चाहे जो हो, भारत की तरह तेजी से आगे बढ़ रहे एक देश के लिए अनुसंधान की क्षमता में बड़े पैमाने पर विस्तार समय की मांग है। ज्ञान के क्षितिज का लगातार विस्तार करने के लिए सार्वजनिक वित्तपोषण के साथ-साथ निजी और धर्मादा वित्तपोषण भी अनिवार्य है। सरकार को न सिर्फ सहिष्णुता बरतनी चाहिए, बल्कि सीपीआर जैसे कई और संस्थानों के उदय को सुविधाजनक बनाना चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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