वर्ष 2002 के गुजरात जनसंहार पर बनी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली तत्कालीन गुजरात सरकार की कार्रवाइयों पर सवाल उठाने वाली बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री के प्रदर्शित होने के बाद की घटनाओं को सिर्फ ‘स्ट्रीसंड प्रभाव’ का एक और नमूना ही कहा जा सकता है। आईटी नियम, 2021 और आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 69ए के तहत आपातकालीन शक्तियों का इस्तेमाल करके विभिन्न वेबसाइटों पर मौजूद इस डॉक्यूमेंट्री के पहले एपिसोड तक पहुंच को रोकने के निर्देश जारी करने के बाद, सूचना और प्रसारण मंत्रालय (एमआईबी) ने इस डॉक्यूमेंट्री की लिंक वाले 50 से अधिक ट्वीट को भी ब्लॉक कर दिया। लेकिन इन सबका नतीजा सिर्फ लोगों द्वारा स्मार्टफोन पर स्क्रीनिंग और शेयरों के जरिए इस डॉक्यूमेंट्री तक पहुंच जाने में ही हुआ। यह इस बात का उदाहरण है कि कैसे सूचना के दमन का अनचाहा नतीजा जागरूकता को और ज्यादा बढ़ाने या ‘स्ट्रीसंड प्रभाव’ में होता है। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में इस डॉक्यूमेंट्री को प्रदर्शित करने की आशंका के आधार पर 13 छात्रों को पुलिस द्वारा हिरासत में लेने की अन्य कार्रवाइयां जरूरत से ज्यादा और सत्ता के दुरुपयोग जैसी हैं। कहने की जरूरत नहीं कि सरकार को मनमाने ढंग से किसी मीडिया कंटेंट के प्रसार को सिर्फ इसलिए नहीं रोकना चाहिए कि यह शासन की आलोचना है। इस डॉक्यूमेंट्री तक पहुंच को रोकने के लिए आपातकालीन शक्तियों के इस्तेमाल के पीछे इसके प्रचारवादी और औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित होने के तर्क को अगर उस जनसंहार और उसके बाद के कवरेज की निरंतरता में देखा जाए, तो इसमें कोई दम नहीं है। किसी भी सूरत में, प्रचार का जवाब प्रचार के जरिए ही दिया जाना चाहिए, न कि सेंसरशिप जरिए।
इस जनसंहार की वजह बनने वाली घटनाओं, जघन्य अपराधों, तत्कालीन शासन की निर्दयता और कानून एवं व्यवस्था के पर्याप्त कदमों की कमी, इन सभी को भारतीय प्रेस में अच्छी तरह से दर्ज किया गया है और उन पर टिप्प्णियां की गईं हैं। बीबीसी की यह डॉक्यूमेंट्री बस मीडिया द्वारा भारत के इतिहास के उस हिस्से की एक और पड़ताल भर है जिसने न सिर्फ गुजरात में बल्कि अन्य जगहों पर भी राजनीति की दिशा बदल दी। एमआईबी द्वारा बताए गए “प्रचारवादी”
होने के आधार पर आपातकालीन शक्तियों का इस्तेमाल करके इस डॉक्यूमेंट्री के पहले एपिसोड की ऑनलाइन ब्लॉकिंग को उचित नहीं ठहराया जा सकता है और यह कदम अभिव्यक्ति की आजादी एक मुद्दे के तौर पर देखने के बजाय कार्यपालिका द्वारा अपनी ताकत की नुमाइश के लिए आईटी नियमों का इस्तेमाल करने की हालिया प्रवृत्ति को दर्शाता है। ऑनलाइन समाचार प्रकाशनों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ाने की इजाजत देने के लिए आईटी नियमों में फरवरी 2021 में संशोधन किया गया था। इस कदम के बारे में अब अदालतों में सुनवाई हो रही है। विभिन्न उच्च न्यायालयों के हाल के आदेशों ने भी अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के मसले पर विचार किया है और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अभिव्यक्ति की आजादी को नियंत्रित करने के लिए सरकार के कदमों पर रोक लगा दी है। इन सारी कवायदों के मद्देनजर, एक साफ राय बनाई जा सकती है कि केंद्र सरकार आईटी नियमों का इस्तेमाल घृणा फैलाने वाली अभिव्यक्तियों और फर्जी खबरों, जो आज डिजिटल मीडिया की दुनिया के असली अभिशाप हैं, पर लगाम लगाने के बजाय आलोचनात्मक कंटेंट पर रोक लगाने के लिए ज्यादा उत्सुक है। .
This editorial has been translated from English, which can be read here.