झारखंड विधानसभा में हेमंत सोरेन की सदस्यता को लेकर जारी अनिश्चितता के बीच, उनकी सरकार ने बहुमत साबित कर दिया है। श्री सोरेन पर खुद के नाम एक खनन पट्टा आवंटित करने का आरोप है। यह एक ऐसा कृत्य है जिससे विधानसभा की उनकी सदस्यता छिन सकती है। इक्कासी-सदस्यीय विधानसभा में श्री सोरेन की अगुवाई वाले सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस, राकांपा, राजद और सीपीआई (एम-एल) गठबंधन को मंगलवार को विश्वास मत के दौरान स्पष्ट बहुमत के साथ 48 वोट मिले। विधानसभा चुनाव में 26 सीटों के साथ संख्या बल में भाजपा काफी पीछे रह गई, लेकिन सत्ता पर काबिज होने के लिए वह उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ पा रही। भाजपा की तरफ से तोड़-फोड़ की आशंकाओं के चलते, संख्या बल में काफी मजबूत होने के बावजूद झामुमो की अगुवाई वाला गठबंधन लड़खड़ाता रहा है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की तर्ज पर राज्य सरकार को गिराने की फुसफुसाहट 30 जुलाई को पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के तीन विधायकों की नकदी के साथ हुई गिरफ्तारी से शुरू हुई, जिन्होंने कथित तौर पर ये पैसे दलबदल के लिए लिए थे। मुख्यमंत्री के सिर पर अयोग्यता की तलवार लटकने के बावजूद, सत्तारूढ़ गठबंधन अपने विधायकों को एकजुट रखने में कामयाब रहा और सदन में विश्वास प्रस्ताव पेश किया। ऐसा लगता है कि भाजपा का इरादा बदल गया है और वह श्री सोरेन से निपटने के लिए अपनी रणनीति को लेकर अभी संशय की स्थिति में है। अंतिम तौर पर तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन श्री सोरेन की सरकार और गठबंधन फिलहाल बच गया है।
श्री सोरेन की विधानसभा की सदस्यता रद्द करने के बारे में राज्यपाल रमेश बैस की चुप्पी काफी उलझन भरी है, या कहें कि कुछ ज्यादा ही पारदर्शी है, क्योंकि यह भाजपा की अस्पष्टता को साफ तौर पर दर्शा रही है। बीते अगस्त भारतीय चुनाव आयोग की सिफारिश के बाद, श्री बैस से उम्मीद लगाई जा रही थी कि वह श्री सोरेन को सदस्यता से अयोग्य होने की घोषणा कर देंगे। हालांकि, चुनाव आयोग की सिफारिश के बाद राज्यपाल की तरफ से कोई भी आधिकारिक बयान नहीं आया है, लेकिन भाजपा के नेताओं को विश्वास है कि उन्होंने श्री सोरेन को अयोग्य ठहराए जाने की सिफारिश कर दी है। इन सबकी शुरुआत फरवरी 2022 में तब हुई, जब भाजपा ने राज्यपाल से शिकायत की कि श्री सोरेन को राज्य से खनन का पट्टा मिला है, लिहाजा यह जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 9 (ए) का उल्लंघन है। अगर उन्हें अयोग्य ठहराया जाता है, तो ऐसे कई सवाल हैं जो स्वाभाविक तौर पर उसके बाद उठेंगे। इनमें सबसे अहम सवाल यह है कि क्या वह मुख्यमंत्री के रूप में बने रह सकेंगे? विधायिका का सदस्य रहे बगैर भी कोई व्यक्ति छह महीने तक मुख्यमंत्री के पद पर रह सकता है। हालांकि, तकनीकी नियमों की ओट लेकर किसी ऐसे व्यक्ति का मुख्यमंत्री पद पर बने रहना उचित नहीं होगा जिन्हें कानून का उल्लंघन करने के आरोप में विधायक के रूप में अयोग्य ठहराया गया हो। सबसे जरूरी और विचित्र मामला तो यह है कि राज्यपाल उस एक सवाल पर अपनी चुप्पी नहीं तोड़ रहे हैं जिससे सारी अनिश्चितता खत्म हो जाएगी। वह अपना फैसला सुनाने से बच रहे हैं। राज्यपाल के पास अपनी किसी भी गतिविधि के जरिए किसी भी राजनीतिक दल के पक्ष में या उसके खिलाफ पलड़े को झुकाने की कोई वजह नहीं है। श्री बैस को फैसला लेना चाहिए और तुरंत इसकी घोषणा करनी चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.