भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में, मतदाताओं की पसंद विरोधाभासों की गठरी हो सकती है जिसे खोलने और समझने के लिए सावधानीपूर्ण सूक्ष्म-विश्लेषण की जरूरत होती है। एक तरफ, सीएसडीएस-लोकनीति के मतदान-पूर्व सर्वेक्षण 2024 में सामने आये इस आशय के तथ्य कि बेरोजगारी और महंगाई भावी मतदाताओं के लिए सर्वाधिक चिंताजनक मुद्दे हैं, कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। बड़ी युवा आबादी और अपेक्षाकृत निम्न प्रति व्यक्ति आमदनी वाले देश में, पर्याप्त नौकरियों का अभाव और उच्च मुद्रास्फीति का बने रहना चिंता के बड़े मुद्दे होने चाहिए। यह सर्वेक्षण इस बात को भी उजागर करता है कि उत्तरदाताओं में आधे से ज्यादा ने महसूस किया कि बीते पांच सालों में भ्रष्टाचार बढ़ा है। अपने 10 साल के कार्यकाल में, नरेन्द्र मोदी-नीत भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार आर्थिक मोर्चे पर औसत ही रही है। बेरोजगारी कम करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा, साथ ही उसने ऐसी नीतियों को आगे बढ़ाया है जिन्होंने आम लोगों की बनिस्बत बड़े लोगों को काफी फायदा पहुंचाया है। भले ही भाजपा राम मंदिर के उद्घाटन और हिंदुत्व जैसे मुद्दों को अपने प्रचार अभियान में काफी जोर-शोर से उठा रही है, लेकिन सर्वेक्षण से यह जाहिर होता है कि इन दोनों मुद्दों की अनुगूंज उतनी नहीं है जितनी कि रोजी-रोटी से जुड़ी चिंताओं की। मगर सर्वेक्षण यह दिखाता है कि भाजपा को ‘इंडिया’ ब्लॉक पर 12 फीसदी की निश्चिंत बढ़त हासिल है। सत्तारूढ़ पार्टी को इतनी ज्यादा तरजीह ‘नेतृत्व’ और सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों के बूते हासिल हो रही है।
मुख्य मुद्दों पर मतदाताओं की धारणा बनाम उनकी संभावित पसंद में यह विरोधाभासी द्वि-विभाजन चुनावी दौड़ में शामिल दोनों गठबंधनों व दूसरे दलों को निश्चिंत भी करता है और चिंतित भी। भाजपा संसद की 543 में से लगभग 400 सीटें जीतने के बारे में गाल बजाने में लगी है, लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़ी मुख्य चिंताएं बताती हैं कि वोट शेयर में अंतर (जैसा सर्वेक्षण में बताया गया है) के बावजूद पार्टी की राह 2019 जैसी आसान नहीं होने जा रही है। जहां तक विपक्ष की बात है, तो आर्थिक और रोजी-रोटी से जुड़ी चिंताओं के एक वैकल्पिक एजेंडे पर जोर देने से उसे वास्तविक चुनाव से पहले वोट शेयर में अंतर को कम करने का एक मौका मिल सकता है। हालांकि यह चुनाव सर्वेक्षण राज्य-स्तरीय कारकों पर केंद्रित नहीं था, लेकिन हालिया विधानसभा चुनावों ने उत्तर और दक्षिण के राजनीतिक विभाजन को गहरा होता दिखाया है। भाजपा सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर हिंदी हृदयस्थली और अन्य इलाकों को प्रभावित करने में जितनी सक्षम है, दक्षिण को प्रभावित करने में उतनी ही अक्षम। तकरीबन आधे उत्तरदाताओं द्वारा रोजी-रोटी के मुद्दों को मुख्य चिंताओं के रूप में पेश किये जाने से देशभर में इस राजनीतिक संदेश के लिए अवसर बनना चाहिए कि विचारों की होड़ हो – इस बारे में कि कौन सा राजनीतिक समूह इन चिंताओं के निवारण में सबसे अच्छी पेशकश कर रहा है। अंत में, यह खतरे की घंटी है कि लगभग 58 फीसदी उत्तरदाता कम या ज्यादा परिमाण में अपना भरोसा चुनाव आयोग में खो चुके हैं। दोबारा भरोसा हासिल करने के क्रम में, इस संस्था को मतदान प्रक्रिया से जुड़ी चिंताओं का निवारण करना होगा और साथ ही अपनी स्वाधीनता का मुखर इजहार करना होगा।