पद की गरिमाः केन्द्र द्वारा नए राज्यपालों की नियुक्ति

वर्तमान भूमिका में दलगत राजनीति से दूर रहनेवालों को राज्यपाल नहीं बनाया जाना चाहिए

Published - February 14, 2023 12:19 pm IST

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश और भारतीय सेना के एक पूर्व कमांडर उन लोगों में शामिल हैं, जिन्हें केन्द्र सरकार ने रविवार को राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया है। कई राज्यों के राज्यपालों और एक केन्द्र - शासित प्रदेश के उपराज्यपाल की भूमिका में भी फेरबदल हुआ है। हाल के वर्षों में झारखंड, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में राज्यपाल ने राजनीतिक भूमिका निभाने की कोशिश की है जिससे विवादों की लंबी फेहरिस्त तैयार हो गयी है। पर्याप्त कारणों से, खासकर राजनीतिक कार्यपालिका के साथ अपने संबंधों के संदर्भ में, सेना और न्यायपालिका की भूमिका भी रूचि के विषय बन गए हैं। जजों को नियुक्त करनेवाली न्यायधीशों की कॉलेजियम प्रणाली पर बहस के अलावा न्यायिक नियुक्तियों को नियंत्रित करने की कार्यपालिका की कोशिश तो जगजाहिर है। कार्यपालिका ने कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति की सिफारिशों पर अमल करने में चुनिंदा तरीके से देरी और तेजी दिखाई है और प्रभावी रुप से उन शक्तियों का प्रयोग किया है, जो जजों की नियुक्ति में उसके पास नहीं है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को अपने राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए सशस्त्र बलों का दुरुपयोग करने के आरोपों का भी सामना करना पड़ा है। इससे पहले भी सेवानिवृत पुलिस और खुफिया अधिकारी राज्यपाल के पद पर रहे हैं, लेकिन 2014 में भारत के एक सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की राज्यपाल के रुप में नियुक्ति ने एक नई मिसाल कायम की थी। एक दूसरे सेवानिवृत सीजेआई को 2020 में राज्यसभा में नामित किया था, जिससे भी लोगों की भौहें तन गई थी।

राज्यपाल नामक संस्था ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता संरचना की विरासत है। लोकतंत्र में मनोनीत राज्यपाल की वैधता पर संविधान सभा में गरमागरम बहस हुई थी, बावजूद इसके इसे गणतंत्र में शामिल कर लिया गया था। राज्यपाल को केन्द्र और राज्य के बीच सक्रिय रूप से एक सेतु के रुप में कार्य करना था लेकिन संविधान निर्माता इस बात पर पूरी तरह स्पष्ट थे कि वह पद सजावटी रहना चाहिए, सिवाय बहुत ही संकीर्ण परिभाषित परिस्थितियों में, जिसमें उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल करके निर्णय लेने की इजाजत दी गयी थी। दशकों से, राज्यपालों की जरूरत से ज्यादा सक्रियता केन्द्र-राज्य संबंधों और सामान्य रुप से लोकतंत्र में एक गंभीर सवाल बनकर उभरा है। वर्ष 2014 के बाद से केन्द्र में भाजपा के प्रभुत्व ने राज्यों के साथ नए तरह के तनाव पैदा किए हैं। भाजपा की राष्ट्रीय एकता का दृष्टिकोण क्षेत्रीय हित समूहों के बीच चिंता का सबब बन जाता है। राज्यपाल के पद पर उन लोगों को सुशोभित किया जाना जाना था जो उसके योग्य थे। इसे उन व्यक्तियों के लिए सेवानिवृति के बाद की संभावना के रुप में खोलना, जिन्हें अपनी वर्तमान भूमिका में पक्षपातपूर्ण राजनीति से दूर रहने की जरूरत है, उन पदों की गरिमा को कम करता है जिन्हें वे पीछे छोड़कर आए हैं और अगले पद पर काबिज होने जा रहे हैं।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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