उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में कुछ अधिवक्ताओं की नियुक्ति को रोकने की केंद्र सरकार की कोशिशों के खिलाफ कॉलेजियम ने जोर लगाकर अच्छा किया। उच्च न्यायालय में नियुक्तियों की सिफारिश करने वाले तीन सदस्यीय कॉलेजियम ने वकील सौरभ किरपाल को दिल्ली उच्च न्यायालय, आर. जॉन सत्यन को मद्रास उच्च न्यायालय और सोमशेखर सुंदरेसन को बंबई उच्च न्यायालय में पदोन्नत करने के अपने फैसले को फिर से दोहराया है। कॉलेजियम को हर मामले में केंद्र द्वारा उठाई गई आपत्तियों का विस्तार से जवाब देकर निपटना पड़ा। हालांकि, इससे संवैधानिक अदालतों में नियुक्ति प्रक्रियाओं को लेकर न्यायपालिका के साथ सरकार की चल रही तकरार में, सरकार की मंशा उजागर हो गई है। कॉलेजियम और केंद्र के बीच के संवाद में प्रस्तावित नियुक्तियों को लेकर सरकार की आपत्तियों की निराधार प्रकृति जाहिर हुई है। इससे यह साफ होता है कि मौजूदा सरकार किस हद तक न्यायिक नियुक्तियों को अपनी मुट्ठी में करने को लेकर कितनी बेचैन है। एक तरफ, किसी उम्मीदवार के यौन रुझान के आधार पर उसको रोकने की कोशिश करना, मध्यकालीन विचारों का मामला दिखता है, वहीं दूसरी तरफ, सोशल मीडिया गतिविधियों के आधार पर दो अधिवक्ताओं की पदोन्नति को रोकने की कोशिश, यह दिखाती है कि उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों का पूरा खेल राजनीतिक वफादारों को भरने के लिए है। जैसा कि कॉलेजियम ने बताया कि न तो श्री किरपाल का यौन रुझान और न ही बाकी दो अधिवक्ताओं द्वारा जाहिर किए गए राजनीतिक विचार का असर, पद के लिए उनकी उपयुक्तता या सत्यनिष्ठा पर पड़ेगा।
ऐसा लगता है कि सरकार का मानना है कि न्यायिक नियुक्तियों के लिए संभावित उम्मीदवारों का अपना कोई राजनीतिक विचार नहीं होना चहिए या फिर उनके भीतर अपने विचार को जाहिर करने की प्रवृति नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे न्यायाधीश के रूप में उनके काम-काज में पूर्वाग्रह झलक सकता है। इस बात का खंडन इस तथ्य से होता है कि बाकी जिन नामों पर सरकार ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं की उनमें से कुछ तो घनिष्ठ रूप से राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं। दरअसल, न्यायिक नियुक्तियों का इतिहास ऐसे सरकारी कानून अधिकारियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है जिन्हें केंद्र या राज्य सरकार का भरोसा हासिल हुआ। साथ ही, राजनेताओं की नुमाइंदगी करने वाले कई ऐसे वकील हैं जिन्हें उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की बेंच में पद की पेशकश की गई। यौन रुझान के आधार पर सरकार द्वारा की गई आपत्ति भयावह है क्योंकि यह लिंग या यौन रुझान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने के संवैधानिक नियमों के खिलाफ है। यह बात सही है कि कॉलेजियम प्रणाली में नियुक्ति की प्रक्रिया दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई पारदर्शिता नहीं है और इसमें जोन आधारित नुमाइंदगी पर विचार नहीं किया जाता। हालांकि, मौजूदा सरकार जिस तरह से उन उम्मीदवारों को रोकने की कोशिश कर रही है जिनके बारे में उसे लगता है कि वह उसके राजनीतिक एजेंडे को आगे नहीं बढ़ायेंगे, उससे निश्चित रूप से यह धारणा बनेगी कि नियुक्ति प्रक्रिया में किसी भी तरह का सरकारी हस्तक्षेप न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा साबित होगा।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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