यह चिंता का विषय है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने मई 2022 के आदेश की समीक्षा करने से इनकार कर दिया है। उस फैसले में कहा गया था कि बिलकिस बानो गैंगरेप मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे 11 दोषियों की समय से पहले रिहाई पर फैसला करने के लिए गुजरात सरकार, “उपयुक्त सरकार” है। ये ऐसे लोग हैं जो इस गैंगरेप के अलावा कई लोगों की हत्या में भी शामिल थे। खुद के आदेशों की समीक्षा करने के लिए अदालत का अधिकार क्षेत्र महज रिकॉर्ड में हुई गड़बड़ी को ठीक करने तक सीमित है। यह एक विवेकाधीन उपाय भी है और आम तौर पर इसे खुले न्यायालय में नहीं सुना जाता है। हालांकि, ऐसा लगता है कि दो-न्यायाधीशों की पीठ अपने निष्कर्ष में एक महत्वपूर्ण त्रुटि को ठीक करने में नाकाम रही कि रिहाई का फैसला लेने का अधिकार, गुजरात सरकार को है। गुजरात में 2002 के मुस्लिम विरोधी जनसंहार के दौरान हुए कई जघन्य अपराधों में से एक में शामिल, इस मामले को अदालत ने मुकदमे के लिए मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया था। मामले की अपील पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने सुनवाई की। दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 432(7) कहती है कि “उपयुक्त सरकार”, “उस राज्य की सरकार है जहां अपराधियों को सजा दी जाती है”। इस स्पष्ट प्रावधान के बावजूद, खंडपीठ ने कहा कि चूंकि अपराध गुजरात में हुआ था और मुकदमे की सुनवाई मुंबई में हुई, लेकिन मुकदमा खत्म होने के बाद आगे के सारे मामले, गुजरात के अधिकार क्षेत्र में वापस आ गए। अदालत ने यह भी कहा कि दूसरे राज्य में मुकदमे का स्थानांतरण “असाधारण परिस्थितियों” के तहत हुआ था।
खंडपीठ का विचार काफी अजीब था क्योंकि यह एक वैधानिक प्रावधान के खिलाफ है। इसके अलावा, यह स्थानांतरण सिर्फ इसलिए हुआ था क्योंकि गुजरात में निष्पक्ष सुनवाई की गुंजाइश नहीं थी। इसी आधार पर गुजरात सरकार को उसी मामले में रिहाई का फैसला सुनाने की शक्ति से वंचित रहना चाहिए। पिछले आदेश में एक और पहलू यह बताया जाना था कि रिहाई का फैसला 1992 की नीति के तहत लिया गया क्योंकि उन लोगों की सजा के दिन वही नीति लागू थी। इसलिए, जघन्य अपराधों में शामिल लोगों की सजा माफ करने की शक्ति पर, उस नीति में किसी खास प्रतिबंध के अभाव में, दोषियों को रिहा कर दिया गया। बाद में पता चला कि केंद्र ने भी इस फैसले से सहमति जताई थी। राहत की बात है कि पहले के आदेश की समीक्षा करने से इंकार करने से, उनकी रिहाई को चुनौती देने वाली एक अलग याचिका के नतीजे प्रभावित नहीं होंगे। रिहाई पर सवाल उठाने के पर्याप्त आधार दिख रहे हैं। कोर्ट फाइलिंग से पता चलता है कि उनकी रिहाई के खिलाफ निचली अदालत के जज की राय की अवहेलना की गई थी। इसके अलावा, उनकी रिहाई की सिफारिश करने वाली समिति में भाजपा विधायकों सहित राजनीतिक पदाधिकारियों की मौजूदगी भी इस फैसले को गलत ठहरा सकती है। सुप्रीम कोर्ट के पास अब भी मौका है कि वह सांप्रदायिक रूप से प्रेरित अपराधों में सीधे तौर पर शामिल लोगों की, समय से पहले रिहाई की अनुमति देने की वैधता की जांच करे।
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