अंतहीन परीक्षा: जम्मू एवं कश्मीर में जारी आम नागरिकों की हत्याओं का मसला 

लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के जरिए ही धार्मिक ध्रुवीकरण को पलटा जा सकता है

March 01, 2023 11:04 am | Updated 11:04 am IST

पुलवामा में आतंकवादी बंदूकधारियों के हाथों कश्मीरी पंडित और बैंक गार्ड संजय शर्मा की मौत घाटी में अल्पसंख्यक समुदाय पर होने वाले हमलों की श्रृंखला में एक और हत्या है। वर्ष1990 में चरम उग्रवाद के दौरान जानकी नाथ की मौत के बाद संजय शर्मा पुलवामा इलाके में आतंकवाद की चपेट में आने वाले दूसरे पंडित हैं। यह हत्या जहां इस इलाके में अल्पसंख्यक समुदाय के बीच भय पैदा करने की आतंकवादियों की एक सोची-समझी चाल हो सकती है, वहीं यह निरीह आम निवासियों को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करा पाने में सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी का भी संकेत देती है। आम नागरिकों को निशाना बनाने वाले इन कट्टरपंथी तत्वों के तौर-तरीके हमेशा से स्पष्ट रहे हैं । ये हमले राज्य की ओर से प्रतिशोध और दमन को दावत देने के लिए किए जाते हैं, ताकि बदले में असंतोष एवं नाराजगी को हवा देकर अपने मकसद के लिए और अधिक भर्तियां की जा सकें। मंगलवार को, इस घटना के बाद चलाए गए अभियानों के दौरान सेना के एक जवान और दो आतंकवादियों की मौत के बाद, सुरक्षा बलों ने यह दावा किया कि शर्मा पर हमला करने वालों को अब मार गिराया गया है। लेकिन यह उस डर को कम करने के लिहाज से बिल्कुल नाकाफी है जिसने घाटी और खासतौर पर पुलवामा के पंडितों को जकड़ रखा है। पिछले साल, उग्रवादी हमलों में तीन स्थानीय पंडितों, तीन अन्य हिंदुओं और आठ गैर-स्थानीय मजदूरों सहित 29 नागरिकों की मौत हुई और घाटी से 5,500 पंडित कर्मचारियों का पलायन भी हुआ।

नागरिक समाज के संगठनों के अलावा हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठनों समेत तमाम राजनीतिक दलों ने इन हमलों की निंदा की है। लेकिन, बार – बार होने वाली हत्याएं और इनकी नृशंस प्रकृति एक स्तर पर प्रशासन और नागरिकों के बीच संबंधों के टूटने की ओर इशारा करती है जिसके चलते ऐसे हमलों का पूर्वानुमान लगाने और उन्हें रोक पाने में प्रशासन नाकाम है। उग्रवाद के चरम के दौरान भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित रहे इलाकों का अब उनके लिए असुरक्षित हो जाने का तथ्य यह बताता है कि प्रशासन को घाटी में अपनी सुरक्षा-केंद्रित नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। केंद्र- शासित प्रदेश प्रशासन और केंद्र सरकार ने यह दावा किया है कि अनुच्छेद 370 को नरम करने और 2019 में इस राज्य को विभाजित करने जैसे कठोर कदमों से उग्रवाद पर अंकुश लगाने में मदद मिली है और ये कदम घाटी में सामान्य स्थिति बहाल करने के लिहाज से जरूरी थे। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय पर बार-बार हो रहे हमले कुछ और ही इशारा कर रहे हैं। कट्टरपंथी तबकों ने ध्रुवीकरण को भड़काने के लिए घाटी में व्याप्त असंतोष का इस्तेमाल करने की कोशिश की है। सिर्फ घाटी के लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की एक प्रभावी सरकार ही प्रशासन और नागरिकों के बीच विश्वास को ज्यादा बेहतर तरीके से बहाल कर सकती है। यह कदम कट्टरपंथी तबकों को अलग-थलग करने में मदद करेगा और कश्मीर में सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले काम के बोझ को हल्का करेगा। जम्मू एवं कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करना और विधानसभा चुनाव कराने की दिशा में काम करना अब एक स्पष्ट और अनिवार्य जरूरत है।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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