किसी देश के कानून को न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांत का जितना पालन करना चाहिए, उतना ही उसे समय के साथ बदलना भी चाहिए। कर्नाटक उच्च न्यायालय की धारवाड़ पीठ ने इसी आधार पर, भारत के विधि आयोग से यह आग्रह किया है कि ‘जमीनी हकीकत को ध्यान में रखते हुए’ सहमति की उम्र के मानदंडों पर वह फिर से विचार करे। न्यायाधीशों ने कहा कि उन्हें यह सिफारिश इसलिए देनी पड़ी क्योंकि ऐसे कई मामले उनके सामने आए जिनमें 16 साल से ज्यादा (लेकिन 18 साल से कम) उम्र की नाबालिग लड़कियां किन्हीं लड़कों के प्यार में पड़कर भाग गईं। उन्होंने हैरत जताई कि आखिर यौन संबंध के मामले में लड़कियों की सहमति को इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया? खासकर तब, जब पोक्सो अधिनियम के प्रावधानों के तहत आरोप लगाए गए। यह अधिनियम बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाया गया था। इसमें संभोग के लिए सहमति की उम्र को 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दिया गया था। हालांकि, व्यावहारिकता के लिहाज से अगर देखें तो कई अध्ययनों से पता चलता है कि किशोर आयु वर्ग (16 वर्ष और उससे अधिक) के बीच इस अधिनियम के तहत दर्ज किए गए कई मामलों में रोमांस शामिल है। इनमें शादी के इरादे से एक-दूसरे के साथ सहमति से भाग जाने के मामले भी शामिल हैं। ऐसे लगभग हर मामले में प्रेमी के साथ भागी नाबालिग लड़कियों के माता-पिता ने पुलिस में मामला दर्ज करवाया। यौन संबंध की पुष्टि के बाद लड़कों पर पोक्सो अधिनियम की धारा लगा दी जाती है। लड़के कभी-कभी नाबालिग होते हैं या मुश्किल से शादी की कानूनी उम्र के होते हैं। यौन हमले के आरोप में मुकदमा चलने का मतलब होता है कि उनकी जिंदगी बदल जाना। इस कानून का मकसद भी वही है। एक तरफ, लड़कों को आपराधिक मुकदमे झेलने पड़ते हैं, वहीं लड़कियां जब अपने माता-पिता के फैसले का विरोध करती है, तो उन्हें भी सरकारी संस्थाओं में भेज दिया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस कानून में ऐसे मामलों में शामिल युवाओं की जिंदगी बर्बाद करने की क्षमता है। साथ ही, इस कानून की वजह से समूचा परिवार बिखर सकता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बच्चे कमजोर होते हैं और उन्हें यौन उत्पीड़न की जबरन कोशिशों से बचाया जाना चाहिए या फिर उन्हें ऐसे शोषण को समझने के लिए तैयार किया जाना चाहिए।
हालांकि, किशोरों के बीच आकर्षण और 16 साल या उससे ज्यादा उम्र में सहमति को जांच और अभियोजन के वक्त प्रासंगिक माना जाना चहिए। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने यह भी पूछा कि क्या यह माना जा सकता है कि नाबालिगों को इस कानून का ज्ञान है? गौरतलब है कि न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति ने भी आपराधिक कानूनों में संशोधन के वक्त यह सिफारिश दी थी कि सहमति की उम्र को घटाकर 16 साल कर दिया जाए। साथ ही, पोक्सो अधिनियम में जरूरी बदलाव किए जाएं। विधि आयोग को अब इस अधिनियम के वास्तविक कार्यान्वयन पर ध्यान देना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पोक्सो अधिनियम अपने व्यापक मकसद को पूरा करे और यह मकसद है- बच्चों की सुरक्षा।
This editorial has been translated from English, which can be read here.