गिनने का वक्त: जनगणना कराने में सरकार की देरी का मामला 

जनगणना जैसी बेहद महत्वपूर्ण कवायद में और देरी करना सरकार के लिए उचित नहीं है

January 10, 2023 11:03 am | Updated 11:03 am IST

हर दस साल पर होने वाली जनगणना के महत्व को कतई कम करके नहीं आंका जा सकता। चूंकि जनगणना अन्य बातों के अलावा भारतीय आबादी की बुनियादी जनसांख्यिकी, साक्षरता का स्तर, जाति की स्थिति, शैक्षिक स्थिति, बोली जाने वाली भाषाएं, धर्म, वैवाहिक स्थिति, पेशा और प्रवासन की स्थिति जैसी कई खासियतों से जुड़े आंकड़ों का संकलन करता है, यह प्रशासनिक कार्यों और कल्याणकारी योजनाओं के निर्माण के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। जनगणना के आंकड़े इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनका इस्तेमाल उन अन्य नमूना सर्वेक्षणों को नया आधार देने के लिए एक फ्रेम के रूप में किया जाता है, जो पूरी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। राष्ट्रीय जनगणना का उपयोग अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा पूरी दुनिया की आबादी का अनुमान लगाने के लिए भी किया जाता है। भारत ने 1881 से हर 10 साल में जनगणना की है। सिर्फ महामारी से प्रभावित साल 2021 इसका एक अपवाद रहा क्योंकि उस वक्त इस कवायद को स्थगित कर दिया गया था। इसकी सीमाओं को स्थिर करने की समय-सीमा 30 जून, 2023 तक बढ़ा दी गई है और इस कार्यक्रम के कुछ महीने बाद ही कारगर तरीके से जनगणना कराई जा सकती है। लोगों की गणना से पहले घरों को सूचीबद्ध करने जैसी गतिविधियां होती हैं। कोविड-19 महामारी के उभरने से पहले, 2020 की शुरुआत में अधिकांश राज्य इस काम को शुरू करने की दिशा में अग्रसर थे। लेकिन बार-बार स्थगन और इसकी वजह से जनगणना शुरू होने में होने वाली अनावश्यक देरी, जिला और अन्य निचले स्तरों पर जनसंख्या के आंकड़ों से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी की उपलब्धता को गंभीर रूप से प्रभावित करेगी।

देरी की वजह के तौर पर महामारी का हवाला दिया गया है। लेकिन लॉकडाउन और शारीरिक दूरी के मानदंड के अब अतीत की बात होने और 2022 की शुरुआत में ‘ओमिक्रॉन वैरिएंट’ की आखिरी लहर के बाद से देश में संक्रमण का स्तर अपेक्षाकृत कम रहने का तथ्य यह बताता है कि यह अब एक वैध बहाना नहीं है। दरअसल, जनगणना के आंकड़ों से कोविड-19 महामारी के दौरान ‘अत्यधिक मौतों’  के विश्लेषण के आधार पर मृत्यु दर के विभिन्न अनुमानों की तस्दीक होनी चाहिए। साथ ही, यह जरूरी है कि शहरीकरण और विभिन्न राज्यों में लोगों के प्रवासन से संबंधित भारत की जनसांख्यिकी में दशकीय बदलावों को पर्याप्त तरीके से दर्ज किया जाए। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी कल्याणकारी योजनाएं जनसंख्या अनुमानों पर निर्भर करती हैं और सरकार अभी भी 2011 की जनगणना पर ही निर्भर है, जोकि अब स्पष्ट रूप से पुरानी पड़ चुकी है। जनसंख्या वृद्धि दर में अंतर-राज्यीय असमानताएं भी चुनावी सीमाओं के संभावित परिसीमन और राज्यों में सीटों के बंटवारे से जुड़ी बहस को प्रभावित कर सकती हैं। शासन चलाने के वास्ते प्रशासनिक, कल्याणकारी एवं सांख्यिकीय प्रबंधन की योजनाओं के सुचारु निर्माण व कार्यान्वयन की इन एवं अन्य अनिवार्यताओं के मद्देनजर केंद्र सरकार को जनगणना का काम शुरू करने में तत्परता दिखानी चाहिए।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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