जोखिम को दावत: पर्वतीय क्षेत्रों के विकास की कवायद

हाल के वर्षों में हुए पर्वतीय क्षेत्रों के विकास ने पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ दिया है

August 23, 2022 12:07 pm | Updated 12:07 pm IST

भारत में इस साल मानसून की अबतक की बारिश सामान्य से आठ फीसदी अधिक रही है। भले ही यह कुछ इलाकों में कृषि के लिए अच्छा संकेत है, लेकिन इसका एक मतलब बाढ़ और विनाशकारी नतीजों के साथ हो रही केंद्रित बारिश भी है। इस सप्ताहांत में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में मूसलाधार बारिश के कारण अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन में कम से कम 25 लोगों की मौत हो गई। बाढ़ की धाराओं द्वारा कई पुलों और वाहनों को बहा दिए जाने की वजह से कई मुख्य सड़कें मलबे से अवरुद्ध हो गईं। कुल 21 लोगों की मौत और 12 लोगों के घायल होने के साथ ही हिमाचल प्रदेश में यह संकट कुछ ज्यादा ही गहरा हो गया है। बारिश के बाद मची अफरातफरी में कम से कम छह लोग लापता हैं। राज्य के मंडी, कांगड़ा और चंबा सबसे ज्यादा प्रभावित जिले हैं। जानमाल का नुकसान जहां इन बारिशों के सतह पर दिखाई देने वाले नतीजे हैं, वहीं इसके दीर्घकालिक असर वाले कई दूसरे प्रभाव भी हैं। मसलन, स्कूलों और परिवहन सुविधाओं पर तुरंत रोक लगा दिए जाने से काम के बेशकीमती उत्पादक घंटों का नुकसान होता है। मवेशियों और पौधों को बर्बाद होने के लिए उनके हाल पर छोड़ दिए जाने का नतीजा आजीविका के तबाह होने, परिवार की माली हालात कमजोर होने और राज्य के खजाने पर वित्तीय बोझ बढ़ने में होता है। मानसून, चार महीने की अवधि में भारत की कुल सालाना बारिश का लगभग 75 फीसदी हिस्सा प्रदान करता है और यह असमान रूप से इस देश के विविधता से भरे मुख्तलिफ हिस्सों को पानी मुहैया कराता है। लिहाजा, यह लाजमी है कि कुछ स्थान बहुत ज्यादा ही नाजुक साबित होते हैं और उन्हें जलवायु का प्रकोप अनुपात से कहीं ज्यादा झेलना पड़ता है। हिमाचल प्रदेश के पर्यावरण, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में इस तथ्य को रेखांकित किया गया है कि पर्वतीय क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से बेहद संवेदनशील बन गए हैं। इन इलाकों में हाल के वर्षों में हुए विकास ने विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाओं के पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ कर समस्या को और विकराल बना दिया है।

हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में जहां कुछ अनूठी चुनौतियां हैं, वहीं जलवायु की अनिश्चितताओं की वजह से होने वाले खतरे उनके लिए अनजाने नहीं हैं। मानसून की बारिश के ढर्रे में आ रही बाधाओं की वजह से बादल फटने जैसी घटनाओं में वृद्धि हो रही है और साथ

ही साथ उच्च आवेग वाले चक्रवातों एवं सूखे की आवृत्ति में भी इजाफा हो रहा है। सरकार की एक रणनीति समय से पूर्व चेतावनी के पूर्वानुमानों की प्रणाली को बेहतर बनाने की रही है। भारत मौसम विज्ञान विभाग अब जिलों को पाक्षिक, साप्ताहिक और यहां तक कि अगले तीन घंटे के मौसम के बारे में पूर्वानुमान मुहैया कराता है। इनमें अचानक आने वाली बाढ़ और बिजली गिरने के बारे में समन्वित चेतावनियां शामिल हैं। ये सभी चेतावनियां सटीक नहीं होती हैं और अक्सर वे इतना पहले नहीं दी जाती हैं कि अधिकारियों को तैयारी करने का पर्याप्त वक्त मिल पाए। हाल के वर्षों में, आने वाले चक्रवातों के बारे में दी जाने वाली शुरुआती चेतावनियों में हुए सुधार ने राज्य की एजेंसियों को सबसे कमजोर लोगों को समय रहते निकालकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने और उनका पुनर्वास करने में काफी मदद की है। लेकिन बाढ़ के मामले में ऐसी सफलता अभी नहीं मिल पाई है। पहाड़ी और अस्थिर इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास के अंतर्निहित जोखिमों के बारे में बखूबी पता होने के बावजूद बेहतर बुनियादी ढांचे और सेवाओं की लोगों की मांगों को पूरा करने के नाम पर अधिकारियों द्वारा अक्सर इन्हें नजरअंदाज किया जाता है। ऐसी परियोजनाओं और बुनियादी ढांचे के विकास को शुरु करते समय सरकार द्वारा इनकी वजह से बढ़ने वाले जोखिम व चुकाई जाने वाली कीमत पर ध्यान दिया जाना चाहिए और विकास के संबंध में वैज्ञानिक सलाह का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए।

This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.

To read this editorial in Tamil, click here.

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