जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने अपनी अंतिम ‘सिंथेसिस’ रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी है। यह उसके छठवें आकलन चक्र का हिस्सा है। आइपीसीसी ने मौसम और जलवायु में परिवर्तन के साथ ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के संबंध पर अपने वैज्ञानिक अनुसंधान को 1990 के बाद प्रचारित करना शुरू किया था। तब से इस बात के सबूत लगातार मजबूत होते गए हैं कि इंसानी गतिविधियां दुनिया को अपरिवर्तनीय विनाश के कगार पर ले जा रही हैं। आइपीसीसी के विभिन्न मूल्यांकन चक्रों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्विट्जरलैंड के इंटरलेकन में सप्ताह भर के विचार-विमर्श के बाद सार्वजनिक की गई इस रिपोर्ट में नई जानकारी के रूप में बहुत कुछ खास नहीं है क्योंकि यह 2018 के बाद की उन रिपोर्टों का एक संश्लेषण है जिन्होंने न केवल ग्लोबल वार्मिंग में मानवीय योगदान की पुष्टि की है बल्कि 2015 के पेरिस समझौते को पूरा नहीं करने के निहितार्थों का भी कई कोणों से विश्लेषण किया है, जिसमें तापमान वृद्धि को प्राक्-औद्योगिक काल के मुकाबले अधिकतम 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर तक थामने के प्रयासों की बात कही गई थी।
इस रिपोर्ट में विकसित देशों से विकासशील देशों में वित्त प्रवाह की जरूरत पर जोर दिया गया है और उन देशों को मुआवजा देने की जरूरत बताई गई है जो जलवायु परिवर्तन के कारण सबसे अधिक नुकसान उठाने वाले हैं, ताकि उन्हें अपनी नीतियों में लचीलापन लाने में मदद मिल सके। नीति निर्माताओं के लिए यह नवीनतम संश्लेषण रिपोर्ट संक्षेप में कहती है कि पृथ्वी की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का सबसे अच्छा तरीका यह सुनिश्चित करना है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक 2019 के स्तर से 48 फीसदी और 2050 तक 99 फीसदी तक कम किया जाए। फिलहाल दुनिया के देश सामूहिक रूप से जिन घोषित नीतियों पर चल रहे हैं वे अगर पूरी तरह से लागू की जाती हैं तो 2100 तक तापमान 2.5 डिग्री सेल्सियस से लेकर 3.2 डिग्री सेल्सियस तक ऊपर चला जाएगा। ताजा रिपोर्ट नवंबर में दुबई में होने वाली पक्षकारों की बैठक (कॉप) के अगले सत्र में अहम चर्चा का विषय हो सकती है, जहां पेरिस समझौते में निर्धारित प्रतिबद्धताओं को हासिल करने के लिए अब तक देशों द्वारा किए गए कामों का लेखाजोखा चर्चा के केंद्र में होने की संभावना है। आइपीसीसी की रिपोर्ट को आम तौर पर कयामत के संकेत के रूप में देखा गया है, लेकिन वर्तमान रिपोर्ट सौर और पवन ऊर्जा
की गिरती लागत और इलेक्ट्रिक वाहनों के विस्तार के बारे में भी बात करती है। हालांकि, पेरिस समझौते के लक्ष्यों को उत्सर्जन घटाए या कार्बन डाइऑक्साइड हटाए बिना पूरा नहीं किया जा सकता है। इसमें अप्रमाणित प्रौद्योगिकियों की जरूरत पड़ेगी जो अब भी जरूरत से ज्यादा महंगी हैं। भारत ने इस रिपोर्ट का ‘स्वागत’ किया है और कहा है कि इसके कई खंड उसकी घोषित स्थिति को रेखांकित करते हैं: कि जलवायु संकट असमान योगदान के कारण है शमन व अनुकूलन में ही जलवायु न्याय निहित है। भारत को इस संदेश को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि सिर्फ एक ठोस और समन्वित प्रयास ही इस धरती को आसन्न तबाही से बचने का मौका दे पाएगा। इसके लिए देशों को अपनी सुविधाजनक मुद्रा को त्यागना होगा।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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