सरकार आने वाले दिनों में एक नई विदेश व्यापार नीति का ऐलान करने वाली है। इस नई नीति में वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात को बढ़ाने में मदद करने के साथ-साथ बढ़ते आयात के खर्चों पर लगाम लगाने के उपाय शामिल हो सकते हैं। मौजूदा व्यापार नीति 2015 में लाई गई थी। इस नीति का पांच साल का कार्यकाल महामारी पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन की घोषणा के एक सप्ताह बाद समाप्त हो गया था। तब, उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए इसे एक साल के लिए बढ़ा दिया गया था। हालांकि, मार्च 2021 से आगे इस पुरानी नीति को बढ़ाया जाना समझ से परे है। विशेष रूप से मौजूदा छह महीने का विस्तार, जो इस नीति की समाप्ति तिथि को 30 सितंबर तक बढ़ा देती है। एक नए वित्तीय वर्ष में बिल्कुल नए सिरे से आगाज करने की पारंपरिक रवायत के उलट, किसी वित्तीय वर्ष के मध्य में नई नीति की शुरुआत करना आदर्श कदम नहीं है। इसके अलावा निर्यात कोविड से उबरने के बाद की स्थितियों में विकास के उन चंद इंजनों में से एक रहा है, जो कुलाचे मार रहा है। लिहाजा, ‘आउटबाउंड शिपमेंट’ को बढ़ावा देने की नीति को बंद करने का फैसला चौंकाने वाला है। चीन पर कम निर्भर होने की दुनिया की चाहत को भुनाने के लिए भारत की रणनीति को स्पष्ट कर देने से निर्यातकों (और आयातकों) को अपने निवेश की योजना बनाने में भी मदद मिलेगी। पिछले साल जनवरी में, निर्यातकों को घरेलू कर वापस करने के लिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के प्रावधानों के अनुरूप निर्यात प्रोत्साहन योजना शुरू की गई थी। लेकिन, दरों को कुछ महीनों के बाद ही अधिसूचित किया गया था। उसमें भी, कुछ क्षेत्रों को छोड़ दिया गया था। पूरी तरह से टाली जा सकने वाली इस अनिश्चितता के बावजूद, वस्तुओं का निर्यात वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान 422 बिलियन डॉलर के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया।
इस साल, सरकार को वस्तुओं का निर्यात कम से कम 450 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाने की उम्मीद है। लेकिन जुलाई और अगस्त माह में विकास दर लुढ़क कर इकाई अंकों में सिमट गया है। उधर, मार्च से हर महीने आयात 60 बिलियन डॉलर से अधिक का हो गया है। विकास दर में वैश्विक सुस्ती और यूरोप एवं अमेरिका में मंदी की आशंका अच्छे संकेत नहीं दे रही है। यों तो ऑर्डर हुए पड़े हैं, लेकिन ढेर सारे खरीदार डिलीवरी को टालना चाहते हैं। नई नीति में निर्यात
को गति प्रदान करने और बढ़ती ब्याज दरों पर लगाम सहित उद्योग जगत की कुछ प्रमुख चिंताओं को दूर करने के तरीके खोजने होंगे। अब जबकि राजस्व में उछाल है, यह समय फार्मा, रसायन, और लोहा एवं इस्पात जैसे विकास के प्रमुख क्षेत्रों को शुल्क छूट योजना से बाहर रखने के रुख पर पुनर्विचार करने का भी है। फिलहाल के लिए भारत-प्रशांत आर्थिक ढांचे के व्यापार के रास्ते से दूर रहने का निर्णय लेने के बाद, यह कहना कि सरकार के पास नई मुक्त व्यापार संधि वार्ता के लिए 'कोई दायरा या बैंडविड्थ' नहीं बचा है जबकि कई देश इसके लिए मनुहार कर रहे हैं और वह खाड़ी सहयोग परिषद के साथ बातचीत को धीमा करना चाहती है, गैरजरूरी है। अगर कोई वास्तविक समस्या है, तो उसका समाधान बचे हुए बैंडविड्थ के साथ आर्थिक नीति निर्माताओं को शामिल करके खोजा जाना चाहिए। लेकिन यह तय है कि संभावित साझेदार देशों, छोटे ही सही, को दूर भगाने के मुकाबले भारत के बढ़ते दबदबे को सुनिश्चित करने के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं।
This editorial has been translated from English, which you can read here.