नेस्तनाबूद करने की लड़ाईः माओवादी विद्रोह के खिलाफ जंग

सैन्य बढ़त के बावजूद, माओवादी विद्रोह का हल केवल हिंसा पर निर्भर नहीं हो सकता

Updated - April 19, 2024 10:36 am IST

माओवाद के खिलाफ युद्ध एक खास तरह के ढर्रे में तब्दील हो गया है। लंबे समय से चला आ रहा यह विद्रोह 2000 के दशक के शुरू से लेकर मध्य तक चरम पर था। हाल में, माओवादी विद्रोहियों ने अर्धसैनिक और पुलिस बलों की ओर से एक के बाद एक कई प्रहार झेले हैं। इसमें छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की मंगलवार की वह घटना भी शामिल है जिसमें कम-से-कम 29 माओवादी मारे गये। मध्य भारत के जंगलों और छिटपुट आदिवासी आबादी वाली जगहों - जहां देश के बाकी हिस्सों के मुकाबले विकासात्मक और कल्याणकारी राज्य की कमजोर उपस्थिति है – तक ही सीमित माओवादी एक राजनीतिक-वैचारिक शक्ति के रूप में काफी कमजोर पड़ गये हैं। उनकी पार्टी – भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) – की विचारधारा या वैकल्पिक राज्य की दृष्टि को मानने वाले कम ही लोग रह गये हैं। हालांकि, उनके पास सुरक्षा बलों को निशाना बनाने की क्षमता बची हुई है, जो अप्रैल 2021 में अर्धसैनिक बलों के 22 जवानों और अप्रैल 2023 में 10 जवानों की हत्या से जाहिर है। उन्होंने सुरक्षा बलों को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वे माओवादी कैडरों को निशाना बनाने के लिए गैर-पारंपरिक रणनीतियों और लड़ने के नये तरीकों का इस्तेमाल करें। हालांकि इन हमलों ने माओवादियों की सैन्य ताकत को कमजोर किया है, लेकिन वे केंद्र सरकार के दावों के अनुरूप विद्रोहियों की ओर से पेश खतरे को पूरी तरह खत्म नहीं करते। ऐसा इसलिए कि माओवादी दुर्गम पहाड़ी इलाकों में हैं और उन्होंने गृह युद्ध से प्रभावित आदिवासियों के कुछ असंतुष्ट तबकों का दिल जीतने की क्षमता दिखायी है।

माओवादियों (जिनकी मजबूती दो प्रमुख नक्सली पार्टियों के भाकपा-माओवादी में विलय के बाद अपने शिखर पर पहुंची) के खिलाफ लड़ाई के दो दशकों के बाद, भारतीय राज्य को काफी पहले यह एहसास हो गया कि उनसे सैन्य रूप से निपटना और आदिवासियों का दिल कल्याणकारी कदमों से जीतना ही एकमात्र उपाय है। सन 2000 के दशक के आखिर में, सलवा जुड़ूम जैसे दोषपूर्ण अभियानों के जरिए माओवादियों से निपटने के लिए आदिवासियों को हथियारबंद करने जैसे हथकंडों का इस्तेमाल उलटा पड़ गया। बाद में सरकार ने अपनी राह बदली। कल्याणकारी राज्य और नौकरशाही की पहुंच का मध्य भारत के उन इलाकों तक विस्तार हुआ जो इससे पहले पहुंच से बाहर थे। इसने भारतीय राज्य के शोषणकारी होने के बारे में माओवादी प्रचार को नकारने में मदद की। लड़ाई और हिंसा से थक चुके बहुत से आदिवासी लोगों ने माओवादियों को समर्थन देने से इनकार कर दिया। इससे दूसरे राज्यों में भी उनके सदस्य संगठन छोड़ने लगे। हालांकि, छत्तीसगढ़ में लगातार चल रही लड़ाई ने माओवादियों को कुछ असंतोष का लाभ उठाने में मदद की है। सिविल सोसाइटी और शांति के समर्थक कार्यकर्ताओं ने माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्षविराम की बातचीत शुरू करने की कोशिश की है। साथ ही विद्रोहियों से कहा है कि वे आदिवासियों से जुड़े मुद्दों की लड़ाई लोकतांत्रिक तरीकों से लड़ें। लेकिन झटके झेलने के बावजूद, माओवादियों ने अपनी पुरानी पड़ चुकी विचारधारा छोड़ने से मना कर दिया है। वे यह कबूल करने को अनिच्छुक हैं कि जिन गरीब आदिवासियों की नुमाइंदगी का वे दावा करते हैं, वे कल्याणकारी और चुनावी तंत्र से बस बेहतर जुड़ाव और नतीजा चाहते हैं, न कि कोई हिंसक तख्तापलट जो उनकी जिंदगियों को खतरे में डाल दे। माओवादियों की इस अनिच्छा ने यह सुनिश्चित किया है कि एक-दूसरे को कमजोर करने की यह लड़ाई चलती रहे।

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