सुप्रीम कोर्ट ने अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग करते हुए 2021 के अपने फैसले को रद्द कर दिया और दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (डीएमआरसी) को एक पूर्व रियायतकर्ता के साथ हुए विवाद में 7,687 करोड़ रुपये के अत्यधिक बोझ से राहत दी। यह फैसला एक ओर अदालत के उपचारात्मक क्षेत्राधिकार के अस्तित्व की पुष्टि करता है तथा दूसरी ओर मुकदमेबाजी में अंतिमता और वास्तविक न्याय की जरूरत के बीच संभावित टकराव को दर्शाता है। इस मामले में एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने 2017 में दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो एक्सप्रेस प्राइवेट लिमिटेड (डीएएमईपीएल), जिसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से दिल्ली हवाई अड्डे तक लाइन के निर्माण, रखरखाव और संचालन का ठेका मिला था, के पक्ष में फैसला सुनाया था। डीएएमईपीएल ने कुछ दोषों को ठीक करने में डीएमआरसी की कथित विफलता का हवाला देते हुए अक्टूबर 2012 में अपने समझौते में समाप्ति खंड के प्रावधान का इस्तेमाल किया था। डीएमआरसी ने जहां मध्यस्थता खंड के प्रावधान का इस्तेमाल किया, वहीं डीएएमईपीएल ने जून 2013 में परिचालन रोक दिया और लाइन डीएमआरसी को सौंप दी। इस बीच, एक संयुक्त आवेदन के आधार पर, मेट्रो रेल सुरक्षा आयुक्त (सीएमआरएस) ने सुरक्षा प्रमाणपत्र जारी किया, जिससे मेट्रो के परिचालन को फिर से शुरू करने में मदद मिली। अपील किए जाने पर, दिल्ली हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश वाली पीठ ने डीएमआरसी के खिलाफ मध्यस्थता पुरस्कार को बरकरार रखा, लेकिन एक डिवीजन बेंच ने यह कहते हुए इसे रद्द कर दिया कि यह पुरस्कार विकृति और पेटेंट संबंधी अवैधता से ग्रस्त है। वर्ष 2021 में, सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों वाली पीठ ने डीएमआरसी के पक्ष में हाईकोर्ट की पीठ के निष्कर्षों को पलटते हुए पुरस्कार को बहाल कर दिया। एक समीक्षा याचिका को भी खारिज कर दिया गया।
एक उपचारात्मक याचिका एक असाधारण उपाय है, क्योंकि यह शीर्ष अदालत द्वारा अपने फैसले की समीक्षा करने से इनकार करने के बाद दायर की जाती है। ऐसी याचिका पर विचार करने के लिए सिर्फ दो मुख्य आधार होते हैं: प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना और अदालत की घोर गलती को रोकना, हालांकि उन सभी परिस्थितियों की गिनती करना संभव नहीं है जो इसे जरूरी बनाती हैं। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि न्याय के लिए न्यायालय की चिंता अंतिमता के सिद्धांत से कम महत्वपूर्ण नहीं है। भारत के मध्यस्थता कानून के तहत, किसी पुरस्कार को सिर्फ सीमित आधार पर ही रद्द किया जा सकता है। मध्यस्थता के मसलों के लिए आम तौर पर मुकदमेबाजी के कई स्तर होना अनुपयुक्त है - इस मामले में हाईकोर्ट में एक वैधानिक अपील की गई थी और फिर एक पीठ, शीर्ष अदालत, एक समीक्षा याचिका एवं एक उपचारात्मक याचिका में अपील की गई थी। अंतिम विश्लेषण में, ऐसा जान पड़ता है कि डीएमआरसी मामले में सही फैसला हुआ है क्योंकि पिछली दो-न्यायाधीशों वाली पीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट की पीठ के इस दृष्टिकोण को खारिज करने में गलती की थी कि सीएमआरएस का प्रमाणपत्र एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है। यह नतीजा सिर्फ मध्यस्थता पुरस्कारों पर विचार करने वाले मध्यस्थों और उससे जुड़ी अपील पर सुनवाई करने वाले न्यायाधीशों को तथ्यों एवं कानून, दोनों को सही परिपेक्ष्य में देखने के महत्व को रेखांकित करता है क्योंकि ऐसा न हो कि अंतिमता के विचार के निरंतर विस्तार के चलते वाणिज्यिक वादी मध्यस्थता से हतोत्साहित हो जायें। सभी विवादी उपचारात्मक याचिका के स्तर तक नहीं जा सकते।