पोंगल के आते ही तमिलनाडु के कई हिस्सों में जल्लीकट्टू की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गई हैं। जल्लीकट्टू एक पारंपरिक खेल है, जिसमें सांडों को शामिल किया जाता है। तमिलनाडु सरकार द्वारा जल्लीकट्टू की अनुमति देने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 8 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान खंडपीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है। उम्मीद की जा रही है कि अदालत इस साल के आयोजन के शुरू होने से पहले अपना फैसला सुना देगी। यह आयोजन राज्य के अलग-अलग हिस्सों में चार महीनों तक चलता है। अदालत, जानवरों के प्रति क्रूरता की रोकथाम (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम 2017 की वैधता पर फैसला सुनाएगी जिसमें “सांडों पर काबू पाने” का जिक्र नहीं है और उसी को आधार बनाकर सरकार ने जल्लीकट्टू को मंजूरी दी। हालांकि, मई 2014 में शीर्ष अदालत के फैसले के बाद, इस पारंपरिक खेल को कुछ साल के लिए अनुमति नहीं थी, लेकिन दिसंबर 2016 में मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के तुरंत बाद इसे दोबारा शुरू करने की गंभीर मांग होने लगी। अदालत ने तमिलनाडु जल्लीकट्टू अधिनियम 2009 के विनिमयन को रद्द कर दिया था जिसमें “सांडों को काबू करने” की बात की गई थी। बाद में, 2017 के कानून में जल्लीकट्टू को “परंपरा और संस्कृति का पालन करने के लिए आयोजित त्योहार बताया गया जिसमें सांडों को शामिल किया जाता है”। ताजा कानून के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई करते समय अदालत ने इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की है कि क्या जल्लीकट्टू को अनुच्छेद 29 (1) के तहत सामूहिक सांस्कृतिक अधिकार के रूप में संवैधानिक संरक्षण दिया जाना चाहिए; और क्या 2017 के कानून और नियम में “जानवरों के प्रति क्रूरता बरकरार है” या फिर क्या यह “सांडों की देशी नस्लों के अस्तित्व और कल्याण” को सुनिश्चित करने का जरिया है।
लोकतंत्र में लोगों की सांस्कृतिक संवेदनशीलता को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता। छह साल पहले, केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर सत्ता में बैठे लोगों को यह अंदाजा नहीं था कि इसको लेकर जमीन पर चीजें इतनी तेजी से पक रही हैं कि पशुओं के खिलाफ क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 जैसे केंद्रीय कानून में राज्य-स्तरीय विशेष संशोधन लाना पड़ सकता है। नियम कायदों के दायरे में इस त्योहार को आयोजित करने की मंजूरी देने वाले संशोधन से वह गतिरोध टूटा जिसमें जल्लीकट्टू के पक्ष में मरीना बीच पर लंबे समय तक लोगों ने बड़ी-बड़ी सभाएं कीं। हालांकि, संशोधित कानून में पशु यातना की बात तो छोड़ दें, इसमें यह भी सुनिश्चित नहीं किया गया है कि ऐसी किसी भी घटना में लोगों की जान न चली जाए। नियमों को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। साथ ही, नौकरशाही को जल्लीकट्टू के सुरक्षित और सुचारू संचालन की आवश्यकता के लिए स्थानीय लोगों को संवेदनशील बनाना चाहिए। हर प्रथा समय के साथ बदलती रही है और जल्लीकट्टू भी इस नियम का अपवाद नहीं होना चाहिए। इस संदेश को सभी हितधारकों तक कड़ाई से पहुंचाया जाना चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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