कानून का हथौड़ा और राजनीति की विपदा कांग्रेस नेता राहुल गांधी के ऊपर एक साथ आ गिरी है। सूरत की एक अदालत ने 2019 में उनके द्वारा किए गए एक चुनावी तंज- ‘इन सभी चोरों के नाम में मोदी कैसे है?’- पर उन्हें आपराधिक मानहानि का दोषी पाया है। श्री गांधी को दो साल की जेल की सजा सुनाई गई है जो आपराधिक मानहानि के मामले में अधिकतम होती है। इसके चलते उन्हें लोकसभा की सदस्यता के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया गया है। दोषसिद्धि और सजा दोनों कानूनी सवाल खड़ा करते हैं। क्या यह टिप्पणी किसी व्यक्ति विशेष को बदनाम करने की मंशा से है, या एक समूह के रूप में ‘मोदी’ उपनाम वाले लोगों को बदनाम करने के बराबर है? इस मामले में कानूनी नजीर कहती है कि आइपीसी की धारा 499 के तहत ‘व्यक्तियों का समूह’ की शब्दावली जिन लोगों की मानहानि के संदर्भ में प्रयुक्त की गई है, उसकी पहचान एक वर्ग या समूह से होनी चाहिए और मानहानि के लिए आपराधिक कार्यवाही शुरू करने वाले समूह के सदस्य विशेष को कथित मानहानि करने वाले बयान से व्यक्तिगत नुकसान या चोट पहुंचने को दर्शाना चाहिए। इसलिए इस दलील का टिकना मुश्किल है क्योंकि न तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित तीन व्यक्ति जिनका उल्लेख किया गया और न ही उक्त उपनाम वाले सभी लोग पीड़ित पक्ष हो सकते हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि शिकायतकर्ता भाजपा विधायक पूर्णेश मोदी ने दिखाया है कि वे व्यक्तिगत रूप से या ‘मोदी’ समूह के सदस्य के रूप में कथित टिप्पणी से व्यथित हुए।
अधिकतम सजा भी दिक्कततलब है। क़ानून में अधिकतम कैद की अवधि इसलिए निर्धारित करते हैं ताकि निचली अदालत अपराध की गंभीरता के अनुपात में सजा देने में अपने विवेक का इस्तेमाल कर सके। यह संदिग्ध है कि क्या एक सामान्य टिप्पणी से अनिश्चित लोगों के समूह पर हमला करना मानहानि के बराबर होगा, और यदि ऐसा हुआ भी, तो क्या यह इतना गंभीर है कि अधिकतम सजा की जरूरत हो। फैसले की सटीकता तो अपील पर तय की जाएगी, लेकिन सदन की सदस्यता और चुनाव लड़ने से अयोग्यता के रूप में गांधी को इसकी जो राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी उसका स्थायी असर पड़ेगा, बशर्ते वह केवल सजा के निलंबन के बजाय दोषसिद्धि पर ही ‘स्टे’ नहीं ले आते हैं। एक ऐसे देश में जहां राजनीति का आपराधीकरण, भ्रष्टाचार और नफरत फैलाने वाले भाषण सरेमंजर हैं, यह विडंबना ही है कि आपराधिक मानहानि एक प्रमुख नेता के राजनीतिक करियर पर भारी पड़ जाए। एक आधुनिक लोकतंत्र में मानहानि को अपराध नहीं मानना चाहिए। यह एक ऐसे युग की विरासत है जिसमें सत्ता पर सवाल उठाना एक गंभीर अपराध माना जाता था। समकालीन दौर में आपराधिक मानहानि मुख्य रूप से लोकसेवकों और कॉरपोरेट के दुष्कर्मों की आलोचना को दबाने के एक औजार का काम करती है। वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पड़ने वाले भयावह प्रभाव की पर्याप्त परवाह किए बिना आपराधिक मानहानि को बरकरार रखा था। अब इसमें राजनीतिक विरोध और असहमति को भी जोड़ना होगा। राहुल गांधी के खिलाफ फैसले पर निराशा व्यक्त करने वाले विपक्षी दलों को आपराधिक मानहानि के खात्मे को अपने एजेंडे में शामिल करना चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.
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