कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, देश की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित करने की एक साहसिक कोशिश है। अब नौ दिनों के विराम के बाद, 3 जनवरी को दिल्ली से कश्मीर के श्रीनगर के लिए यह यात्रा फिर से शुरू होगी। इसी 7 सितंबर को कन्याकुमारी से यह यात्रा शुरू हुई थी और अब तक 2,800 किलोमीटर से ज्यादा दूरी तय कर चुकी है। सांप्रदायिक बयानबाजी करके राजनीतिक सत्ता हासिल करने की आसान राह वाले समय में, उनकी ओर से सद्भावना का संदेश जितना प्रेरित करने वाला है, उतना ही आदर्शवादी भी है। अपने भाषणों और बातचीत के जरिए उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों का ऐसा चार्टर तैयार करने की कोशिश की जो तात्कालिक चुनावी जोड़-तोड़ से परे है। यह एक हद तक, मौजूदा सामाजिक वास्तविकताओं को दिखाने और उसे कायम रखने वाली यथास्थितिवादी राजनीति और अपनी गतिविधियों के दम पर समाज में बड़ा बदलाव लाने वाली राजनीति के बीच एक मध्य मार्ग तलाशने की कोशिश है। भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि देकर उन्होंने हिंदुत्व को लेकर लगातार दिखाए गए अपने रुख में, मामूली ही सही लेकिन एक बदलाव किया। यात्रा के दौरान वह निश्चित तौर पर हिंदुत्व के सबसे तीखे विरोधी के रूप में उभरे, लेकिन इस राजनीति से निपटने या फिर इसके विरोध का केंद्र बनने की उनकी क्षमता में इस यात्रा से शायद ही कुछ जुड़ा।
श्री गांधी के लिए सामाजिक समरसता ही राजनीति का साधन और साध्य है। हालांकि, इस विचार के सामने एक बुनियादी चुनौती यह है कि राजनीति प्रतिस्पर्धा और संघर्ष से बच नहीं सकती। ऐसा भाजपा और इसकी हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति श्री गांधी के खुद के विरोध से दिखता भी है। सत्ता हासिल करने के बजाय, राजनीति को सामाजिक बदलाव की एक राह के तौर पर कोई पहली बार नहीं देखा गया है। महात्मा गांधी और विनोबा भावे से लेकर जयप्रकाश नारायण तक, भारत में ऐसे लोगों और आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है जिन्होंने राजनीति में शुचिता तलाशने की कोशिश की। हिंदुत्व और मार्क्सवाद जैसी राजनीतिक विचारधाराएं राज्य सत्ता को अंतिम लक्ष्य के रूप में नहीं देखतीं, बल्कि वे इसे उस व्यापक सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में देखती हैं जिसे हासिल करना उनका लक्ष्य है। हिंदुत्व की मौजूदा सत्ता-विचाराधारा ने वर्चस्व और दक्षता का वह स्तर हासिल कर लिया है जो दीर्घकालिक है। भारत पर इसकी अभूतपूर्व पकड़, हिंदू धर्म के राजनीतिक अनुकूलन पर आधारित है, जो ऐसा दर्शन है जिसने लोगों को एक-दूसरे से सदियों से जोड़े रखा है। श्री गांधी इस हकीकत से वाकिफ हैं, लेकिन उनका इरादा प्रतिवाद से काफी आगे का है। राजसत्ता और सामाजिक बदलाव के जटिल संबंधों को तलाशना और ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। फिलहाल श्री गांधी के जिम्मे नैतिक पवित्रता को टिकाऊ राजनीति में बदलने का एक बड़ा काम है।
This editorial has been translated from English, which can be read here.