फेरबदल के अस्पष्ट मायने: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के तबादलों का मामला

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सहमति के बिना फेरबदल की प्रणाली पर पुनर्विचार करने की जरूरत

November 28, 2022 12:12 pm | Updated 05:46 pm IST

न्यायिक नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली के बारे में यह आलोचना बेहद आम है कि उनका कामकाज अपारदर्शी और कभी-कभी मनमाना होता है। विभिन्न न्यायाधीशों के एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में तबादले के मामले में यह आलोचना कुछ ज्यादा ही सही जान पड़ती है। पिछले कुछ सालों में किए गए दर्जनों तबादलों में से हाल ही में किए गए कुछ तबादलों ने इस विवादास्पद मुद्दे को एक बार फिर से उजागर कर दिया है। हालिया तबादलों की सूची में तेलंगाना उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों और मद्रास एवं आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालयों के दो-दो न्यायाधीशों के नाम शामिल थे। लेकिन इस सूची में से गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति निखिल एस. करियल का नाम हैरतअंगेज तरीके से गायब था। न्यायमूर्ति करियल के प्रस्तावित तबादले का उस राज्य के बार ने कड़ा विरोध किया था। वकीलों ने न्यायमूर्ति करियल के साथ-साथ तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ए. अभिषेक रेड्डी के समर्थन में इस मुद्दे को उठाया और भारत के मुख्य न्यायाधीश ने दोनों राज्यों के बार के प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात की। इसके बावजूद, सिर्फ न्यायमूर्ति करियल को छोड़कर बाकी अन्य न्यायाधीशों के तबादलों की अधिसूचना जारी कर दी गई। अगर यह खबर सही है कि गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति करियल के प्रस्तावित तबादले से अनजान थे, तो यह तबादलों के प्रस्तावों की वैधता के लिहाज से निहायत ही अफसोसनाक है। अगर यह धारणा बन रही है कि कॉलेजियम वकीलों के एक समूह द्वारा की गई मांग पर ध्यान देता है लेकिन दूसरे समूह की उपेक्षा करता है, तो इसका संदेश कोई बहुत अच्छा नहीं जा रहा है।

देश भर में प्रतिभाओं के आदान-प्रदान और न्यायपालिका में स्थानीय गुटों को उभरने से रोकने के लिहाज से न्यायाधीशों के तबादले जरूरी हो सकते हैं। लेकिन, तबादले की शक्ति को हमेशा न्यायिक स्वतंत्रता के लिए एक संभावित खतरे के रूप में देखा गया है। कॉलेजियम प्रणाली के तहत भी, हर न्यायाधीश के सिर पर तबादले की तलवार लटकते रहने की धारणा को दूर करना मुश्किल सा लगता है। ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ में इस बात का साफ जिक्र है कि किसी तबादले

के अमल के लिए संबंधित न्यायाधीश की रजामंदी जरूरी नहीं है। वर्तमान कायदा यह है कि सभी तबादले जनहित में यानी पूरे देश में न्याय के बेहतर प्रशासन के लिए होने चाहिए। इसमें यह पहलू भी शामिल है कि न्यायाधीश के व्यक्तिगत कारकों, जिसमें उनके स्थान की पसंद भी शामिल है, को अनिवार्य रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह कोई नहीं जानता कि हरेक मामले में इन शर्तों को पूरा किया जाता है या नहीं। इस बात को शायद ही कभी स्पष्ट किया गया है कि एक अवर न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश बनाए बिना उसका तबादला किसी दूसरे राज्य में क्यों किया जाना चाहिए। आम तौर पर, कयास यह लगाया जाता है कि इसके पीछे की वजह या तो न्यायाधीश के खिलाफ आरोप हैं या फिर उनके न्यायिक फैसले सरकार को परेशान कर रहे हैं। असली वजह का खुलासा हमेशा संभव नहीं है। हालांकि, इस पर ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है कि तबादले को एक दंडात्मक कदम के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। शायद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के तबादले के प्रावधानों की पूरी समीक्षा करने का वक्त अब आ गया है।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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