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केंद्र में बाल अधिकारः बच्चों के आनुवंशिकी जानकारी की सुरक्षा का अधिकार

February 24, 2023 11:43 am | Updated 11:43 am IST

बच्चे के हित को हमेशा केंद्र में रखा जाना चाहिए, न कि केवल अभिरक्षा के विवादों में

संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 1959 में बाल अधिकारों की घोषणा को अपनाया, जो 18 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों के लिए बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित करने वाला अपनी तरह का पहला घोषणापत्र था। उसमें लिखा था: “मानव जाति के पास जो कुछ भी सर्वश्रेष्‍ठ है वह बच्चों का देय है।” इसके बावजूद दस्‍तावेजों की मानें तो कमजोर होने के चलते बच्चे अक्सर उन्हीं लोगों द्वारा दुरुपयोग के शिकार हो जाते हैं जिन्हें उनकी सुरक्षा सौंपी जाती है। डिजिटल प्रौद्योगिकियों में हुई तरक्‍की ने जन्म के पंजीकरण से लेकर स्वास्थ्य देखभाल सम्‍बंधी विधिक पहचान तक कई मोर्चों पर मदद की है, लेकिन इसे इतना आगे भी नहीं जाना चाहिए कि वह एक बच्चे के सद्भावपूर्ण पालन-पोषण में निहित अधिकारों को ही रौंद दे। एक बच्चे के निजता के मौलिक अधिकार के हक में दलील देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है कि बेवफाई साबित करने के आसान नुस्‍खे के रूप में विवादरत दंपती के बीच हर मामले में बच्चों को यांत्रिक रूप से डीएनए परीक्षण से नहीं गुजारा जा सकता है। अपने दूसरे बच्चे के पितृत्व पर सवाल उठाने वाले एक व्यक्ति द्वारा दायर याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति वी. रामसुब्रमण्यन और न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने कहा कि आनुवांशिक जानकारी किसी व्यक्ति के मूल पर प्रकाश डालती है, जो इस बात की तह में जाती है कि वह कौन है। अदालत ने कहा कि यह ‘अंतरंग, व्यक्तिगत जानकारी‘ बच्चे के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। पीठ ने कहा कि बच्चों को यह अधिकार है कि अदालत के समक्ष उनकी वैधता पर सवाल नहीं उठाए जाएं।

अदालतों को इस तथ्य को स्वीकार करने का निर्देश देते हुए कि बच्चों को भौतिक वस्तुओं के रूप में नहीं बरता जाना चाहिए और उन्हें सिर्फ अंतिम उपाय के रूप में- खासकर तब जबकि वे तलाक सम्‍बंधी कार्यवाही में एक पक्ष न हों- ही फोरेंसिक / डीएनए परीक्षण से गुजारा जाना चाहिए, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि यह जरूरी है कि बच्चे पति-पत्नी के बीच लड़ाई का केंद्रबिंदु न बनें। हालांकि यह एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन बाल अधिकारों पर 1989 के संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र को पढ़ने से पता चलता है कि भारत में हर बच्‍चे को “विशेष देखभाल और सहायता“ की गारंटी देने की दिशा में अभी मीलों का सफर तय किया जाना बाकी है। यहां तमाम बच्चों को उनके बचपन से महरूम कर दिया जाता है और इस बात को भुला दिया जाता है कि ‘हर बच्चे को हर अधिकार है’। भारत ने 1992 में इस घोषणापत्र की पुष्टि की थी और बीते वर्षों से बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं, हालांकि उनका कार्यान्वयन अक्सर कमजोर रहा है जो उन्हें दुर्व्यवहार, हिंसा, शोषण या उपेक्षा से बचाने में विफल रहा है। बच्चे के सर्वोत्तम हित का सिद्धांत सामाजिक व्यवहार के हर पहलू के केंद्र में होना चाहिए, न कि केवल अभिरक्षा से जुड़े विवादों में।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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