जिस तरीके से सुप्रीम कोर्ट ने एक कथित माओवादी साजिश के मामले में जी.एन. साईंबाबा एवं अन्य लोगों को रिहा करने के बंबई हाई कोर्ट के एक फैसले को लागू होने पर रोक लगाई है, वह निहायत ही हैरतअंगेज और कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े करने वाला है। यह सही है कि एक निचली अदालत द्वारा प्रो. साईंबाबा एवं चार अन्य लोगों की दोषसिद्धि और उन्हें आजीवन कारावास और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधानों के तहत 10 साल की सजा के फैसले को हाई कोर्ट ने गुण – अवगुण के आधार पर नहीं, बल्कि महज तकनीकी आधार पर दरकिनार किया था और राज्य इससे असंतुष्ट हुआ। फिर भी, इस आदेश के खिलाफ अपील पर विचार करते समय शीर्ष अदालत थोड़ा और अधिक संयमित रूख अख्तियार कर सकती थी। अदालत ने तत्काल सुनवाई की महाराष्ट्र सरकार की इच्छा को पूरा करने के लिए अदभुत उत्साह दिखाया। इस अपील पर शनिवार को सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति एम.आर. शाह और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी की एक विशेष पीठ का गठन किया गया। जरा इन हकीकतों पर गौर कीजिए: अभियुक्तों ने वर्षों जेल में बिताए हैं, प्रो. साईंबाबा विकलांग हैं और रिहाई के तुरंत बाद, उनलोगों को एक प्रक्रिया के तहत एक बांड भरना पड़ता जिसके तहत उन्हें इस फैसले के खिलाफ अपील होने की स्थिति में आगे की कार्यवाही के लिए उपलब्ध होना जरूरी होता। अब यह संदेह होना लाजिमी है कि एक फैसले, जिसमें आरोपी को आरोपमुक्त करने के विस्तृत कारण बताए गए हों, को सिर्फ निलंबित भर करने के लिए शीर्ष अदालत को आखिर इतनी तेजी दिखाने की क्या जरूरत पड़ी। वैसे भी, किसी अभियुक्त को बरी करने के खिलाफ अपील करना कोई अनोखा मामला नहीं है।
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हाई कोर्ट के फैसले का सार यह है कि पांच आरोपियों (उनमें से एक की जेल में मौत हो गई) के मामले में यूएपीए के तहत उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी इस आधार पर अमान्य थी कि जिस दिन मामले को मंजूरी देने वाले प्राधिकारी के सामने रखा गया और उसी दिन मंजूरी दे दी गई और उस मंजूरी को पुष्ट करने के लिए पेश साक्ष्यों का एक स्वतंत्र समीक्षक द्वारा विश्लेषण का कोई संक्षिप्त विवरण संलग्न नहीं था। प्रोफेसर साईंबाबा के मामले में तो, मंजूरी का आदेश आने से पहले ही संज्ञान ले लिया गया और एक गवाह की गवाही भी हो गई।
नतीजतन, पूरी कार्यवाही अमान्य हो गई। दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 465 के तहत सरकार यह जिरह कर सकती है कि मंजूरी के मामले में कोई त्रुटि, चूक या अनियमितता मुकदमे को तब तक प्रभावित नहीं करेगी, जबतक कि उससे न्याय पर सीधा असर न पड़ता हो और यह भी कि यह एक सुधारे जाने लायक खामी है। हालांकि, इन मुद्दों पर हाई कोर्ट द्वारा विस्तार से गौर किया गया है। पीठ ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यूएपीए जैसे विशेष कानूनों से जुड़े मामले पर विचार करते समय विधायिका द्वारा प्रदान किए गए हर बचाव, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, को पूरी तत्परता के साथ संरक्षित किया जाना चाहिए। वर्ष 1976 का एक निर्णय सुप्रीम कोर्ट को बरी करने के किसी आदेश पर रोक लगाने का अधिकार देता है, लेकिन सिद्धांत के तौर पर, पूरी सुनवाई किए बिना अपीलीय अदालत द्वारा बरी या रिहा करने के लाभ पर रोक नहीं लगाई जानी चाहिए।
This editorial has been translated from English, which can be read here.