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बंद करो और बाज आओ: बेंगलुरु के मतदाताओं से जुड़े आंकड़ों की चोरी का मामला

December 01, 2022 12:08 pm | Updated December 30, 2022 04:33 am IST

बीबीएमपी द्वारा चुनावी कार्य किसी एनजीओ को आउटसोर्स करने का कोई औचित्य नहीं है

ब्रुहत बेंगलुरु महानगर पालिके (बीबीएमपी) द्वारा मतदाताओं के बीच जागरूकता बढ़ाने के वास्ते चिलूम एजुकेशनल कल्चरल एंड रूरल डेवलपमेंट ट्रस्ट नाम के एक स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) को घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने की दी गई इजाजत को रद्द करने का फैसला देर से ही सही लेकिन सही दिशा में उठाया गया एक जरूरी कदम है। बेंगलुरु की नगर निकाय, बीबीएमपी, ने यह दावा किया है कि उक्त एनजीओ ने उन निर्धारित शर्तों का उल्लंघन किया है, जिसके तहत उन्हें मतदाता पहचान से जुड़े विवरण इकठ्ठा करने की इजाजत नहीं थी। यह आरोप है कि उक्त एनजीओ ने घर-घर जाकर सर्वेक्षण के जरिए मतदाताओं से जुड़े आंकड़े हासिल करने के लिए बीबीएमपी द्वारा जारी पहचान पत्र का इस्तेमाल किया और उन आंकड़ों को इस मकसद के लिए बनाए गए एक ऐप में संग्रहित किया। मतदाताओं के बीच इन संग्रहकर्ताओं के बीबीएमपी से जुड़े होने का भ्रम फैलाने की उक्त एनजीओ की बेशर्मी भारत के एक सबसे बड़े शहर के नगर निगम की अक्षमता और संवेदनहीनता को इंगित करती है। इस तरह से इकठ्ठा किए गए आधार, फोन नंबर और मतदाता पहचान पत्र से जुड़े विवरणों का इस्तेमाल संभावित मतदाताओं से संबंधित सूक्ष्म आंकड़े और ब्यौरा तैयार करने के अलावा राजनीतिक दलों द्वारा अपने मकसद के लिए आसानी से किया जा सकता है। खासतौर पर बहिष्करण की राजनीति पर फलने-फूलने वाले राजनीतिक दलों की तरफ से इस किस्म के आंकड़ों की बेहद मांग होती है क्योंकि इससे उन्हें समुदाय विशेष और मुख्तलिफ आबादी वाले इलाकों को निशाना बनाने में सुविधा होती है। अगर बीबीएमपी का मकसद सिर्फ मतदाता जागरूकता को बढ़ाना ही था, तो इस काम को किसी गैर-सरकारी तीसरे पक्ष को आउटसोर्स करने की कोई स्पष्ट वजह नहीं थी। नगर निगम को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस तरह इकठ्ठा किए गए आंकड़े तुरंत हटाए जायें और उस एनजीओ के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो।

भारत में डेटा संरक्षण कानून की लगातार गैरमौजूदगी और सरकार की ओर इस संबंध में पेश किए गए सबसे हालिया मसौदा विधेयक के राज्य द्वारा आंकड़ों के दुरुपयोग से बचाव और सुरक्षा के मामले में बेहद कमजोर होने के तथ्य ने हालात की गंभीरता को और बढ़ा दिया है। हाल ही में, भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के प्रखंड (ब्लॉक) स्तर के अधिकारियों द्वारा लोगों को अपने मतदाता पहचान पत्र को अपने आधार से जोड़ने के लिए कहे जाने और ऐसा करने में विफल रहने पर उनका मतदाता पहचान पत्र निरस्त कर दिए जाने की कई खबरें सामने आई हैं। इस तरह की जोड़ने की अनिवार्यता गलत है क्योंकि कानूनी रूप से यह तय हो चुका है कि भारतीय मतदाता मतदान के लिए अपनी पात्रता साबित करने के लिए किसी भी निर्धारित पहचान के दस्तावेज का इस्तेमाल कर सकते हैं। निवास के प्रमाण का पता लगाने के लिए आधार संख्या का उपयोग जहां ईसीआई के अधिकारियों के लिए मतदाता सूची को सत्यापित करने और मतदाता पहचान पत्र के दोहराव से बचने के लिहाज से एक आसान रास्ता है, वहीं इससे वास्तविक मतदाताओं के मताधिकार से वंचित होने का खतरा भी है क्योंकि आधार बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण पूरी तरह सुरक्षित कतई नहीं माना जाता है। ईसीआई घर-घर जाकर सत्यापन करने और मतदाताओं को अपने संबंधित निर्वाचन अधिकारियों की वेबसाइटों पर जाकर अपनी मतदाता पहचान पत्र की जांच और उसे अद्यतन करने के लिए याद दिलाने के मामले में काफी बेहतर है। इसके उलट, आसान तकनीकी सुधारों या आउटसोर्सिंग जैसे विकल्पों की तलाश का निश्चित नतीजा लोगों की व्यक्तिगत जानकारी के दुरुपयोग को रोकने में विफल रहने में ही होगा।

This editorial was translated from English, which can be read here.

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