बुधवार को एक ही बार में राज्यों को कर हिस्सेदारी की देय राशि का एक बड़ा हिस्सा हस्तांतरित करने का केन्द्र का फैसला एक व्यावहारिक कदम है जो न केवल जमीन पर नए पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देगा, बल्कि केन्द्र और राज्यों के बीच चल रहे तनाव के ताजा दौर को भी अस्थायी रूप से शांत करेगा। कर प्राप्तियों में अनुमान से अधिक उछाल होने की वजह से वित्त मंत्रालय ने करों के विभाज्य पूल में राज्यों की मासिक हिस्सेदारी को 2022-23 की पहली तिमाही में लगभग 48,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर अगस्त के लिए 58,332.86 करोड़ रुपये कर दिया है। और खजाने में अधिशेष नकद शेष की हकीकत ने राज्यों को दो महीने की बकाया राशि को एक ही बार में स्थानांतरित करने का रास्ता दे दिया है, जोकि उल्लेखनीय रूप से लगभग 1.17 लाख करोड़ रुपये की एकमुश्त राशि है। यह सही है कि केन्द्र सरकार ने पिछले साल भी दो महीने की बकाया राशि को मिलाकर राज्यों को इसी तरह के हस्तांतरण किए थे, लेकिन इस वित्तीय वर्ष में राज्यों के लिए ऐसा करने का संदर्भ नाटकीय रूप से अलग है। पहली बात तो यह कि उनके पास अब 30 जून, 2022 तक पांच वर्षों में जीएसटी मुआवजे से सुनिश्चित राजस्व के प्रावधान से पीछे हटने का विकल्प नहीं है। यहां तक कि इस वर्ष के अर्जित जीएसटी बकाया के मामले में भी केन्द्र ने अप्रैल और मई माह के लिए राज्यों को लगभग 87,000 करोड़ रुपये जारी करना टाले रखा था। यह अलग बात है कि उसके अपने खजाने में कमी आने की वजह से उस समय जीएसटी मुआवजा उपकर खाते में प्राप्तियां महज 25,000 करोड़ रुपये की थीं। जून माह के लिए जीएसटी बकाया के 35,000 करोड़ रुपये होने के साथ, जीएसटी के कारण राज्यों को दी जाने वाली कुल क्षतिपूर्ति लगभग 1.22 लाख करोड़ रुपये की होगी जोकि 2021-22 के दौरान 2.5 लाख करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति की राशि के आधे से कम है।
राज्यों को एक और अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है जिसके कारण हाल ही में राज्य विकास ऋणों की नीलामियों के दौरान उनके खजाने का बेहद कमजोर प्रदर्शन देखने को मिला है। और वह कारक है - उनके शुद्ध उधार मानदंडों में परिवर्तन। केन्द्र ने जहां किसी एक वर्ष में राज्यों की उधार सीमा को उनके सकल राज्य घरेलू उत्पाद के 3.5 फीसदी पर निर्धारित किया है, वहीं इस उधार सीमा को 2020-21 के बाद से राज्यों द्वारा उठाए गए बजट से इतर ऋण के अनुरूप घटाया जाना है। शुरुआती संकेतों से यह पता चलता है कि इस साल की उच्चतम सीमा में से ऐसे सभी ऑफ-द-बुक ऋण को काट लिए जाने के कदम से पड़ने वाला कड़ा प्रभाव भी कोई कम नहीं रहा, क्योंकि इस तरह के उधार की सीमा से संबंधित एक स्पष्ट डेटा के अभाव में प्रत्येक राज्य के लिए केन्द्र द्वारा निर्धारित की जाने वाली वास्तविक सीमा के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल होता है। वित्त मंत्रालय ने यह स्पष्ट करते हुए इस मोर्चे पर भी ढील दी है कि सिर्फ वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए राज्यों के बजट से इतर ऋण को उधार सीमा के बरक्स समायोजित किया जाएगा और वह भी इस वर्ष और 2025-26 के बीच एक चरणबद्ध तरीके से। इस वर्ष विवेकाधीन परियोजनाओं के लिए राज्यों को दिए गए एक लाख करोड़ रुपये के ब्याज मुक्त ऋण के मानदंडों की भी समीक्षा की जा सकती है ताकि राज्य सरकारों के साथ अधिक से अधिक तालमेल बिठाने में मदद मिल सके। एक साथ उठाए गए इन कदमों से हाल ही में नीति आयोग के शासी परिषद की बैठक में घटते राजस्व के बारे में चिंता व्यक्त करने वाले राज्यों को पूंजीगत व्यय की गतिविधियों के जरिए अपनी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में मदद मिलनी चाहिए। घटती - बढ़ती तीव्रता के साथ केन्द्र और राज्यों के बीच तनाव के बिंदु बने रहेंगे, लेकिन ऊपर की ओर बढ़ती हुई एक आर्थिक लहर दोनों के बाधाओं को कम करेगी।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.