महान पेले ने जिस फुटबॉल को ‘खूबसूरत खेल’ कहा था उसका दुनिया के दूसरी सबसे ज्यादा आबादी वाले देश भारत के साथ एक जटिल रिश्ता रहा है। एक छोटा-सा दौर था, जब भारत ने ओलंपिक में फुटबॉल खेला था। लेकिन, अब तो बस टीवी पर ही यूरोपीय लीग का जुनून छाया रहता है। भारत फीफा अंक तालिका में 104वें पायदान है। तिस पर पुराने जख्मों पर नमक छिड़कते हुए इसके मूल निकाय अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) को उसी 15 अगस्त के दिन प्रतिबंधित होने की बदनामी झेलनी पड़ी, जब देश अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा था। फीफा ने इस दंड की वजह ‘तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप‘ को बताया था। ‘तीसरे पक्ष’ का इस्तेमाल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गठित प्रशासकों की समिति (सीओए) के लिए व्यंजना के तौर पर किया गया था। इस समिति को एआईएफएफ की सफाई का काम सौंपा गया था, जिसकी अगुवाई राष्ट्रीय खेल विकास संहिता द्वारा निर्धारित 12 साल के अधिकतम कार्यकाल की समयसीमा लांघते हुए अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल कर रहे थे, जोकि एक राजनेता भी हैं। तात्कालिक चिंता अक्टूबर में अंडर-17 महिला विश्व कप की मेजबानी करने के भारत के अधिकार के इर्द-गिर्द केंद्रित थी। खेल मंत्रालय और अदालत के बीच हड़बड़ी भरे घटनाक्रमों में, अदालत ने एआईएफएफ के कार्यकारी महासचिव सुनंदो धर और उनकी अगुवाई वाली समिति को सत्ता वापस कर दी। भंग हो चुके जिस सीओए को लेकर फीफा की तरफ से सवाल उठ रहे थे, इस समिति ने उन सवालों को खत्म कर दिया है। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ जब शुक्रवार को विश्व फुटबॉल की संचालक निकाय ने भारत से प्रतिबंध हटा लिया। लेकिन यह ‘अंत भला तो सब भला’ जैसा नहीं है।
भले ही फुटबॉल की दुनिया में भारत का 11 दिनों का वनवास खत्म हो गया हो, लेकिन इसका खामियाजा गोकुलम केरला एफसी को भुगतना पड़ा। उसे उज्बेकिस्तान के एएफसी महिला क्लब चैंपियनशिप में खेलने का मौका नहीं दिया गया। उसे एआईएफएफ, सीओए और खेल मंत्रालय द्वारा प्रतिबंध के शुरुआती खतरों पर सुस्ती के साथ अपनी प्रतिक्रिया देने का खामियाजा भुगतना पड़ा। तथ्य यह है कि फीफा द्वारा प्रतिबंध लगा दिए जाने के बाद ही सरकार और अदालतों ने इस पर जल्दी दिखाई। इन बदतर घटनाक्रमों ने भारतीय खेलों में मौजूद दोहरेपन को भी उजागर किया है, चाहे मामला व्यावसायिक रूप से अकूत कमाई करने (पैसे पीटने) वाला क्रिकेट का हो या फिर ऐसे खेलों का जिन्हें मदद की दरकार है। आम तौर पर खिलाड़ी जहां अपने बूते से ज्यादा बोझ ढोने को मजबूर होते हैं, वहीं प्रशासनिक अमला अक्सर कानूनी और असंतोष की लड़ाई में फंसा रहता है। खेल हर तरह के राजनेताओं को भी एकजुट करता है और यह अलग-अलग किस्म के पक्षियों के एकसाथ उड़ने जैसा मामला है। शुरुआती दिनों में खेल संघ राजनेताओं को इसलिए आगे करते थे क्योंकि इससे उन्हें सरकारी लालफीताशाही से निपटने में मदद मिलती थी, लेकिन धीरे-धीरे राजनेता खेलों की ‘नरम शक्ति’ का लाभ उठाने लगे और अपने कार्यकाल को खींचने लगे। करेले पर नीम यह चढ़ा कि एथलीट से प्रशासक बने लोगों ने भी खेल को खुद से ऊपर नहीं रखा। ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब अदालत द्वारा नियुक्त मध्यस्थ भी इस बीमारी को ठीक करने का मरहम नहीं बन पाए। ये लोग भी स्टार खिलाड़ियों के प्रति मोहित रहने वाले और भुगतान करने में ना-नुकुर करने वाले नौकरशाह ही साबित हुए। जहां तक एआईएफएफ का सवाल है, तो 2 सितंबर को होने वाले चुनाव से कोई नई राह निकलने की उम्मीद की जानी चाहिए।
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