पचहत्तर साल पहले, आज ही के दिन, भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजादी मिलने की मध्य रात्रि में एक भावनात्मक उद्घोष किया था: “जिस उपलब्धि का जश्न हम आज मना रहे हैं, वह एक छोटा सा कदम है, एक अवसर की शुरुआत है, बड़ी जीत और उससे भी बड़ी उपलब्धियां हमारा इंतजार कर रही हैं। क्या हम इतने बहादुर और विद्वान हैं कि इस अवसर को समझ सकें और भविष्य में आनेवाली चुनौती को स्वीकार कर सकें?” ये शब्द आज भी उतने ही मौजूं हैं, जितने भारत के ब्रिटिश शासन के चंगुल से आजाद होते वक्त थे - एक ऐसा मील का पत्थर जिससे, कुछ मामलों में, दुनिया भर में कई अन्य नए राष्ट्र-राज्यों का उदय हुआ, जो उपनिवेशवाद की दासता से मुक्त हुए। आजाद भारत ने अपने स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों और संविधान सभा के सदस्यों, जिन्होंने इसका अनूठा उदार लोकतांत्रिक संविधान बनाया, द्वारा निर्धारित एक मिशन के साथ एक नई यात्रा शुरू की। इस क्रम में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल हुईं - अधिकारों की गारंटी देने वाली एक संवैधानिक प्रणाली जिसमें बोलने, धर्म और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की छूट शामिल है, समय – समय पर होने वाले चुनावों में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का कार्यान्वयन, एक जीवंत विधायिका, शक्तियों के औपचारिक पृथक्करण की अनुमति देने वाले प्रतिष्ठान, एक अर्ध-संघीय ढांचे वाला भाषाई आधार पर पुनर्गठित राज्यों का संघ, विभिन्न संस्थानों (औद्योगिक, शैक्षिक, चिकित्सा) का निर्माण, जिन्होंने प्रगति का आगाज किया और ज्ञान एवं संचार के क्षेत्रों को खड़ा किया जिसने भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ लाभकारी तरीके से जोड़ा। लेकिन कई गलत कदम और विफलताएं भी रहीं - बेहद गरीबी और उपेक्षा, जोकि 1947 के बाद से भले ही नाटकीय रूप से कम हुई हैं, को मिटाने में नाकामी, संवैधानिक व्यवस्था एवं मूल्यों को लागू करने के क्रम में उपजे तनाव, सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद जिसे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ – साथ संविधान के निर्माताओं ने स्पष्ट रूप से खारिज किया था, सत्ता का अधूरा विकेंद्रीकरण और बढ़ती आर्थिक गैरबराबरी। आज, एक तरफ, भारत एक लाभप्रद जनसांख्यिकीय लाभांश के साथ दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है और इसका जीवंत लोकतंत्र चुनावों में उत्साही भागीदारी, एक विविध राजनीति और एक विविधतापूर्ण अर्थव्यवस्था सुनिश्चित करता है। वहीं इसके सामने कई विकराल चुनौतियां भी हैं। इसके लोग एक ऐसी अराजक दुनिया में रह रहे हैं जहां सहयोग और उदार व्यापार संबंध की भावनाएं लड़खड़ा रही हैं और जहां जलवायु परिवर्तन एक चुनौती है। इसके साथ ही, सत्ता को केन्द्रीकृत करने तथा भारत के विचार (आइडिया ऑफ इंडिया) को एकरूप बनाने की कोशिश करने वाली एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के उभार और उसकी मजबूती ने समग्र प्रगति के साधन के रूप में विविधता एवं समावेशन को मान्यता देने वाली संवैधानिक संरचना के असफल होने का खतरा पैदा कर दिया है। समावेशी विकास के जरिए आर्थिक प्रगति – एक ऐसी प्रक्रिया जो 1990 के दशक की शुरुआत में व्यापक सुधारों के बाद तेज हुई थी और 2000 के दशक के मध्य में कल्याण की दिशा में अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की एक संस्था के रूप में तब्दील हुई थी - पिछले कुछ वर्षों में धीमी पड़ गई है। इस बीच, अंतर-राज्यीय असमानताओं में बढ़ोतरी हुई है। दक्षिणी और पश्चिमी भारत अन्य क्षेत्रों की तुलना में शिक्षा, स्वास्थ्य तथा संपूर्ण आर्थिक विकास के मोर्चे पर बेहतर नतीजे दे रहे हैं। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर निकट भविष्य में सावधानीपूर्वक विचार करने की जरूरत है।
आजादी के बाद के भारत में पिछली पीढ़ियों की सफलताओं और असफलताओं ने देश को भविष्य की चुनौतियों से निपटने का रास्ता दिखाया है। पहली बात, यह बिल्कुल साफ है कि न तो आंकड़ों और न ही सिर्फ बाजार आधारित विकास एवं प्रगति पर जोर देना आदर्श है। भारत को 1990 के दशक में बनाई गई उद्यमशीलता की ऊर्जा को फलने-फूलने की इजाजत देने वाली और एक अधिकार-आधारित नजरिए के साथ व्यापक कल्याण पर भरोसा करने वाली उन नीतियों को जारी रखना चाहिए, जिन्हें 2000 के दशक के अंत में अपनी जनसांख्यिकीय क्षमता का उपयोग करने में मदद देने के उद्देश्य से प्रोत्साहित किया गया था। आजादी के शुरुआती वर्षों में उच्च शिक्षा, उद्योग और स्वास्थ्य सेवा के कई आधुनिक संस्थान बनाए और सुदृढ़ किए गए, लेकिन देश प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा एवं शिक्षा पर मजबूती से ध्यान देने से चूक गया। यह एक ऐसी कमजोरी थी जो गरीबी और जाति के आधार पर सामाजिक उपेक्षा का सबब बनी। नीचे से ऊपर की ओर ले जाने वाला विकास का नजरिया, जिसे सकारात्मक कार्रवाइयों और राज्य की प्रतिक्रिया दोनों के जरिए नागरिकों की क्षमताओं के निर्माण पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, अर्थव्यवस्था में उत्पादक शक्तियों की बेहतरी सुनिश्चित करेगा। राज्यों को अधिक वित्तीय आधार प्रदान करने और स्थानीय निकायों को विभिन्न कार्यक्रमों को लागू करने के वास्ते सशक्त बनाने के कदमों से इन लक्ष्यों को हासिल करने में काफी मदद मिल सकती है। 1991 में आर्थिक सुधारों के शुरू होने बाद से एक वैश्वीकृत दुनिया में एक – दूसरे पर निर्भरता ने जहां निर्यात से जुड़े क्षेत्रों को फलने-फूलने का मौका दिया, वहीं चीन या दक्षिण कोरिया जैसे अन्य देशों के मुकाबले रोजगार में विविधता और श्रम उत्पादकता में वृद्धि की कमी हमारी कमजोरियां रही हैं। आज दुनिया जब 5जी, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स और ग्रीन टेक्नोलॉजी जैसी प्रौद्योगिकियों पर निर्भरता की राह में एक नई औद्योगिक क्रांति की ओर बढ़ रही है, भारत को इन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण क्षमताओं का निर्माण कुछ इस तरह से करना चाहिए जिसमें सिर्फ चंद औद्योगिक घरानों का ही मुनाफा सुनिश्चित न हो, बल्कि अधिक लाभकारी रोजगार और अर्थव्यवस्था के विविधीकरण के मौके उपलब्ध हों। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में भारत को जहां अपने हितों पर जोर देते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में उभरने वाले अंतर्विरोधों के बीच कुशलता के साथ अपनी राह तय करना जारी रखना चाहिए, वहीं उसे लंबे समय से आजमाए गए अहस्तक्षेप, समानता पर आधारित विश्व व्यवस्था के निर्माण और शांति के लिए प्रयास करने के उन मूल्यों के अनुपालन को खारिज नहीं करना चाहिए, जिसने भारत को गुटनिरपेक्ष देशों के नेता के रूप में उभरने का मौका दिया। भारत ने 1947 के बाद से अनेक राष्ट्रों की भीड़ में अपने पैर जमाने की दिशा में एक लंबा सफर तय किया है, लेकिन आजादी की पूर्व संध्या पर पंडित नेहरू द्वारा ध्यान दिलाए गए वादे को पूरा करने के लिए अभी भी बहुत लंबा सफर तय करने की जरूरत है। भारत की आजादी के समय वाली पीढ़ी इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट थी कि ब्रिटिश शासन से आजादी सामाजिक न्याय, समानता और विविधता में एकता पर आधारित एक लोकतांत्रिक प्रणाली को संचालित करने वाली संवैधानिक व्यवस्था के बिना बेमानी है क्योंकि ये वो वायदे थे जिन्होंने उपनिवेशवाद को हराने के क्रम में उन्हें बौद्धिक आधार और लोगों का समर्थन प्रदान किया था। 21वीं सदी में भारत की प्रगति इन मूल्यों के फिर से जिंदा होने पर निर्भर करेगी।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.