कभी-कभी, सत्ता के उपयोग और दुरुपयोग के बीच एक बहुत ही झीनी रेखा होती है। दिसंबर 2016 में तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की मौत की वजह बनने वाली परिस्थितियों का पता लगाने वाले जांच आयोग के गठन का मकसद किसी चिकित्सीय संदर्भ या जनहित की भावना का ख्याल रखने के बजाय सिर्फ राजनीतिक जोड़-तोड़ करना था। कुछ समय तक राजनीतिक रूप से अलग – थलग पड़ने के बाद अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्नाद्रमुक) में अपनी वापसी की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए, पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेल्वम ने जयललिता की मौत की जांच की एक पूर्व शर्त रखी थी। अन्नाद्रमुक के एडप्पादी के. पलानीस्वामी को यह शर्त स्वीकार करना आसान लगा क्योंकि जयललिता की सहयोगी वी.के. शशिकला उनदोनों की साझा दुश्मन थीं। इस प्रकार, सितंबर 2017 में ए. अरुमुघस्वामी जांच आयोग का गठन हुआ। पोस्टमॉर्टम की इस चीड़ – फाड़ में पहली दिक्कत तब खड़ी हुई जब अपोलो अस्पताल, जहां जयललिता अपनी मृत्यु तक इलाजरत रहीं थीं, ने यह दावा किया कि जांच आयोग द्वारा आपराधिक इरादे का तोहमत उसके मत्थे मढ़ने की कोशिश की जा रही है। अस्पताल ने मद्रास हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कहा कि उक्त जांच आयोग इलाज के औचित्य की जांच करने के लिए योग्य नहीं है। उसने यह सुझाव दिया कि न्यायाधीश की सहायता के लिए एक मेडिकल बोर्ड का गठन किया जाए। यही सुझाव उसने 2018 में जांच आयोग के सामने भी रखा था। लेकिन इसे खारिज कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2019 में जांच आयोग की कार्यवाही पर रोक लगा दी। 2021 में, सुप्रीम कोर्ट ने जांच आयोग को सलाह देने के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के विशेषज्ञों के एक मेडिकल पैनल के गठन का समर्थन किया। इस पैनल ने इस महीने की शुरुआत में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। इस रिपोर्ट में अस्पताल के इस तर्क से सहमति जताई गई थी कि जयललिता को कई तरह की बीमारियां थीं और उन बीमारियों के लिए उन्हें सही एवं उचित उपचार दिया गया था। रिपोर्ट में अस्पताल के अंतिम निदान पर मुहर लगाई गई थी।
कई बार कार्यकाल बढ़ाए जाने के बाद, उक्त जांच आयोग ने आखिरकार 27 अगस्त को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सरकार से इस आयोग के सामने व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं होने वाली शशिकला सहित कुछ लोगों की भूमिका की जांच की सिफारिश की है। मजेदार यह है कि इस जांच आयोग के गठन लिए जिम्मेदार रहे श्री पन्नीरसेल्वम भी इस साल मार्च तक अपना बयान दर्ज कराने में कोताही बरतते रहे और आयोग के सामने पेश होने के बाद भी काफी हद तक टाल – मटोल भरा रवैया अपनाते रहे। जाहिर है, अन्नाद्रमुक के लिए इस आयोग के जरिए मिलने वाला राजनीतिक लाभ अब प्रासंगिक नहीं रह गया था। इस बीच, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने राज्य में सत्ता की बागडोर संभाल ली है। मौत से परे जाकर अब इस मुद्दे को और उछालना दूरदर्शितापूर्ण नहीं होगा, बल्कि यह राजनीतिक घटियापन के एक नए स्तर को उजागर करेगा। राज्य सरकार के लिए यह अच्छा होगा कि वह इस फिजूल के मुद्दे को हमेशा के लिए दफन कर दे। इस रिपोर्ट से अब किसी को भी कोई राजनीतिक लाभ मिलने की गुंजाइश नहीं है।
This editorial has been translated from English which can be read here.