घेरे में | मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने को सर्वोच्च नीतिगत प्राथमिकता बनाने की जरूरत

चूंकि ऊंची कीमतें उपभोग को रोकती हैं, लिहाजा मुद्रास्फीति पर लगाम लगाना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए

October 03, 2022 11:04 am | Updated 11:04 am IST

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा शुक्रवार को लिया गया दर संबंधी फैसला कुल मिलाकर अपरिहार्य था। मौद्रिक नीति निर्माताओं के पास ब्याज दरों में 50 आधार अंकों की बढ़ोतरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजारों में अत्यधिक उतार-चढ़ाव का दौर लगातार ऊंची रह रही घरेलू खुदरा मुद्रास्फीति के साथ मिलकर वैश्विक स्तर पर और भारत में व्यापक आर्थिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा कर रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने ‘आक्रामक मौद्रिक नीति की कार्रवाइयों और उन्नत अर्थव्यवस्था के केंद्रीय बैंकों की ओर से और भी अधिक आक्रामक संदेश’ को महामारी और यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद तीसरे झटके के तौर पर निरूपित किया। उनके मुताबिक इस झटके ने ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक नए तूफान’ की ओर धकेल दिया है। भारत सहित उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के सामने पेश बाहरी चुनौतियों के बारे में विस्तार से बताते हुए, श्री दास ने कहा, “उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाएं, खासतौर पर, सुस्त पड़ते वैश्विक विकास, खाद्य पदार्थों एवं ईंधन की कीमतों में उछाल, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के नीतिगत सामान्यीकरण से छलकने वाले असर ... और मुद्रा के तेज अवमूल्यन की चुनौतियों का सामना कर रही हैं।” अप्रैल में चालू वित्त वर्ष की शुरुआत के बाद से रुपया भी डालर के मुकाबले सात फीसदी से अधिक कमजोर होकर लगातार दबाव का सामना कर रहा है। और इस स्थिति ने आयातित मुद्रास्फीति के जरिए मूल्य स्थिरता पर ऊपर की ओर धक्का लगाया है। दरअसल, भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति रिपोर्ट के सितंबर अंक में यह बताया गया है कि ‘कम विकास और वैश्विक स्तर पर ऊंची मुद्रास्फीति के दूसरे दौर के प्रभाव घरेलू मुद्रास्फीति को आठ तिमाहियों से आगे भी ऊंचे स्तर पर रख सकते हैं। लिहाजा, मुद्रास्फीति की आशंकाओं को कम करने के लिए उचित मौद्रिक कार्रवाई की जरूरत है’।

दरअसल, केंद्रीय बैंक का अपना अनुमान भी जनवरी-मार्च की तिमाही तक भारत की खुदरा मुद्रास्फीति की छह फीसदी की ऊपरी सहनशीलता सीमा से नीचे रहने का आसार नहीं देखता है। और श्री दास ने भारतीय रिजर्व बैंक के मुद्रास्फीति संबंधी नजरिए को उलट सकने वाले कारकों की ओर बिल्कुल सही इशारा किया है। इन कारकों में बढ़ती मांग के मद्देनजर सेवा प्रदाताओं द्वारा बाहर से लाए जाने वाले उच्च इनपुट लागत की संभावना, चावल एवं दालों के कम खरीफ उत्पादन से खाद्य पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी का जोखिम और कुछ क्षेत्रों में बेमौसम अधिक बरसात से सब्जियों के दाम बढ़ना शामिल हैं। बैंकिंग प्रणाली में तरलता या नकदी की अधिकता, जिसके आने वाले महीनों में सरकारी खर्चों होने वाली बढ़ोतरी की वजह से और भी बढ़ने की उम्मीद है, भी मूल्य स्थिरता के लिए खतरा पैदा कर सकती है और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने दुखी मन से यह कहा कि ‘सुविधाओं की वापसी’ का एक सुविचारित नीतिगत रुख अनिवार्य हो गया था। विशेष रूप से, उन्होंने यह बताया कि ‘मई के बाद से नीतिगत रेपो दर में भले ही 190 आधार अंकों की नाममात्र की वृद्धि की गई है, लेकिन मुद्रास्फीति के लिहाज से यह समायोजित दर अभी भी 2019 के स्तर से पीछे ही है’। मुद्रास्फीति को लेकर परिवारों की उम्मीदों और उपभोक्ता विश्वास से संबंधित भारतीय रिजर्व बैंक के नवीनतम सर्वेक्षणों से भी यह संकेत मिलता है कि कीमतों का दबाव उपभोग को रोकना जारी रखेगा। लिहाजा, मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने को सर्वोच्च नीतिगत प्राथमिकता बनानी होगी।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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