एक – दूसरे से खफा दो नेताओं सर्वश्री एडप्पादी के. पलानीस्वामी और ओ. पन्नीरसेल्वम के बीच कामकाजी संबंध कायम करने के मकसद से दिए गए एकल न्यायाधीश के अव्यावहारिक नुस्खे को खारिज करते हुए, मद्रास उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने अन्नाद्रमुक में “संचालन संबंधी गतिरोध” को फौरी तौर पर दूर कर दिया है। श्री पलानीस्वामी की अपील को अनुमति देते हुए न्यायमूर्ति एम. दुरईस्वामी और न्यायमूर्ति सुंदर मोहन ने पिछले 23 जून को दिए गए पार्टी के भीतर दोहरे नेतृत्व की यथास्थिति बरकरार रखने के फैसले को रद्द कर दिया। दोनों न्यायाधीशों ने सही ही कहा है कि संघर्ष विराम की कोई गुंजाइश नहीं रहने की वजह से एक ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जहां दोनों नेताओं को संयुक्त रूप से पार्टी के मामलों का प्रबंधन करने के लिए अनिवार्य रूप से बाध्य करने पर पूरी पार्टी को अपूरणीय क्षति का सामना करना पड़ेगा। अदालत ने सामान्य परिषद की सर्वोच्चता को वाजिब ही रेखांकित किया है, जिसके सदस्य पार्टी के प्राथमिक सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। पार्टी नेतृत्व की संरचना का निर्धारण करने और कार्यकारी परिषद द्वारा इसमें किए गए किसी भी बदलाव की पुष्टि करने की शक्ति सामान्य परिषद में निहित है। अदालत का यह नजरिया 11 जुलाई की सामान्य परिषद की विशेष बैठक में अंतरिम महासचिव के रूप में श्री पलानीस्वामी के चुनाव को प्रभावी तरीके से मान्य करता है। सामान्य परिषद की यह विशेष बैठक इसके अधिकांश सदस्यों के अनुरोध पर बुलाई गई थी। दिलचस्प बात यह है कि दोनों न्यायाधीशों ने दोहरे नेतृत्व की मौजूदा संरचना को निरस्त करने के कदम को मान्य बनाने के लिए अन्नाद्रमुक की वर्तमान हालत की तुलना पांच साल पहले के उस घटनाक्रम के साथ की जब जेल में बंद तत्कालीन अंतरिम महासचिव वी.के. शशिकला की जगह पन्नीरसेल्वम-पलानीस्वामी की जोड़ी ने ली थी। न्यायाधीशों ने यह माना है कि सामान्य परिषद के समन्वयक और संयुक्त समन्वयक आमने-सामने रहने की स्थिति में अध्यक्ष मंडल के प्रधान द्वारा परिषद की विशेष बैठक का आयोजन अवैध नहीं कहा जा सकता। पार्टी के उप-नियमों में मौजूद खामियां भी श्री पलानीस्वामी के पक्ष में गईं। पार्टी के उप-नियमों में सामान्य परिषद की बैठकें बुलाने के लिए लिखित नोटिस या सामान्य परिषद की विशेष बैठकें आयोजित करने के लिए परिषद के कम से कम कुल सदस्यों के पांचवें हिस्से द्वारा नोटिस दिए जाने की अनिवार्यता का कोई जिक्र नहीं है।
अदालत ने दिलचस्प तरीके से इस गुत्थी को अनसुलझा ही छोड़ दिया है कि सामान्य परिषद द्वारा पुष्टि न किए जाने की स्थिति में दोहरे पद समाप्त हुए या नहीं। श्री पन्नीरसेल्वम इस आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। लिहाजा, उतार – चढ़ाव भरी कानूनी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि पार्टी की आंतरिक राजनीति में श्री पलानीस्वामी का पलड़ा भारी है। सिर्फ एक विधायक को छोड़कर, भारत निर्वाचन आयोग के समक्ष उनके समर्थन में हलफनामा दायर करने वाले पार्टी की सामान्य परिषद के 2,539 सदस्यों में से किसी ने भी उनका नेतृत्व स्वीकार करने के बाद से अपनी वफादारी नहीं बदली है। सामान्य परिषद के कुल 2,665 सदस्य हैं। उधर, श्री पन्नीरसेल्वम अन्नाद्रमुक के भीतर साझा प्रबंधन शक्तियों के साथ एक भागीदार के रूप में अपनी स्थिति को बहाल करने के लिए बार-बार कानूनी रास्ते पर ही भरोसा कर रहे हैं। अपने जनाधार को मजबूत करने और श्री पलानीस्वामी को जरूरी राजनीतिक चुनौती पेश करने के बजाय उन्हें अन्नाद्रमुक से दरकिनार या निष्कासित किए गए उन लोगों से मदद की भीख मांगने में कोई संकोच नहीं है, जिन्हें हाशिए पर डालने में वे बराबर के सहभागी थे। इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा लड़ाई ने पार्टी के फोकस और कामकाज को बाधित कर दिया है। अगले महीने अपना पचासवां साल पूरा करने वाली इस पार्टी के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपने नेतृत्व का मसला जल्दी से सुलझा ले।
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