न्याय का मखौल: जयललिता की मौत की जांच करने वाले आयोग की रिपोर्ट

अरुमुघस्वामी आयोग की जांच रिपोर्ट हैरतअंगेज चूकों से भरी है

October 20, 2022 12:21 pm | Updated 12:21 pm IST

जांच रिपोर्ट कोई सादा स्लेट नहीं होती जिस पर तथ्यों को ताक पर रखकर कोई जांचकर्ता अपने मनमुताबिक कुछ भी लिख दे। क्या अरुमुघस्वामी जांच आयोग की अंतिम रिपोर्ट निर्धारित शर्तों के तहत अनिवार्य रूप से उन परिस्थितियों को स्पष्ट करती है जिनके कारण पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की मौत हुई? या फिर इसके निष्कर्ष राजनीतिक अवसरवाद से जुड़ी साजिशों के सिद्धांत पर पहले से निर्धारित खुराफाती स्क्रिप्ट पर आधारित हैं? तमिलनाडु विधानसभा में मंगलवार को सौंपी गई रिपोर्ट में जयललिता की सहयोगी वी.के. शशिकला, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सी. विजयभास्कर, दो आईएएस अधिकारियों और तीन डॉक्टरों की तरफ शक की सूई घुमाई गई है और उनके खिलाफ आगे जांच की सिफारिश की गई है। हालांकि, रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया कि जिन लोगों पर दोष मढ़ा गया है उनकी गलती क्या है, न ही सबूतों की कड़ी सीधे उन तक पहुंचती है। न्यायमूर्ति अरुमुघस्वामी का प्रशिक्षण एक वकील के तौर पर हुआ है। वे चिकित्सा के जानकार नहीं है। उन्होंने (मौत से) पहले के हालात पर फैसला सुनाते हुए कहा है कि अपोलो अस्पताल में 75 दिनों तक भर्ती रहने के दौरान किन चिकित्सा प्रक्रियाओं (हृदयाघात के लिए एंजियो/सर्जरी) का पालन किया जाना चाहिए था। यही नहीं, फैसले में उन्होंने एक कदम बढ़कर इन्हीं अटकलों के आधार पर इलाज में शामिल रहे योग्य चिकित्सकों के खिलाफ आरोप लगाए हैं। फैसले में स्पष्ट चूक का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने पहले जारी हुई (भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित) एम्स के चिकित्सा विशेषज्ञों की समिति की उस रिपोर्ट को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया, जिसमें समिति ने इलाज और अस्पताल में हुए नैदानिक उपचारों से समहति जताई थी।

रिपोर्ट में डॉक्टरों के पैनल द्वारा सुझाए गए विकल्पों में से मनचाही बातें चुन ली गई हैं और निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उन्हीं बयानों को उद्धृत किया गया है जो पहले से निर्धारित स्क्रिप्ट को पुष्ट करने वाले हों। बदतर बात तो यह है कि इसमें उत्तरदाताओं और गवाहों को कटघरे में खड़ा करने के लिए झूठ का सहारा लिया गया है। खास तौर पर से तब, जब इसमें यह पूछा गया कि जयललिता की सहमति के बावजूद इलाज के लिए उन्हें विदेश क्यों नहीं ले जाया गया। इस रिपोर्ट के हिस्से के तौर पर नत्थी उन दस्तावेजों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया जिनमें यह साफ तौर पर दर्ज है कि जयललिता ने इलाज के लिए देश से बाहर जाने से साफ

इनकार कर दिया था। रिपोर्ट में अस्पताल में हुए इलाज से जुड़े दस्तावेजों का मोटा पुलिंदा शामिल है, फिर भी अगाध रूप से अस्पताल पर (सर्जरी के पहलू पर) स्पष्ट साक्ष्य या दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराने का आरोप लगाया गया है। जांच आयोग के गठन के पांच साल और जयललिता की मृत्यु के लगभग छह साल बाद आई इस रिपोर्ट में न्याय की दिशा में कदम उठाने की कोई कोशिश नहीं की गई है। अलबत्ता, दिशा से भटककर चिकित्सकों पर बेतुके आरोप लगाए गए और दुर्भावना का धुंध फैलाया गया। तमिलनाडु सरकार ने विधानसभा में रिपोर्ट पेश कर और उस पर कानूनी राय लेकर अपना फर्ज निभाया है। यह अब इस मामले का उचित न्याय यही होगा कि सरकार लंबे समय से जबरन खींचे गए इस मुद्दे को इस रिपोर्ट के साथ ही पूरी तरह दफन करना सुनिश्चित करे।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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