मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश के जरिए अन्नाद्रमुक में ‘दोहरे नेतृत्व’ को फिर से बहाल कर दिया है। यह आदेश हाल ही में चुने गए पार्टी के ‘अंतरिम महासचिव‘ एडप्पादी के. पलानीस्वामी को ओ. पनीरसेल्वम के साथ मिलकर काम करने के लिए मजबूर करता है, जिन्हें 11 जुलाई को आयोजित पार्टी की सामान्य परिषद की बैठक में पार्टी से ‘निष्कासित’ कर दिया गया था। पहली नजर में, न्यायमूर्ति जी. जयचंद्रन का 11 जुलाई की बैठक को अधिकृत व्यक्ति द्वारा नहीं बुलाए जाने के आधार पर शून्य घोषित करने का आदेश एक अव्यवहारिक उपाय जान पड़ता है। अदालत ने 23 जून की उस यथास्थिति को बहाल करने का आदेश दिया है, जब नेतृत्व के सवाल पर सामान्य परिषद की बैठक बेनतीजा रही थी। यह अदालती कदम पार्टी को गतिरोध को ओर धकेलता है। अदालत के आदेश में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि समन्वयक (श्री पन्नीरसेल्वम) और संयुक्त समन्वयक (श्री पलानीस्वामी) की संयुक्त सहमति के बिना सामान्य परिषद या कार्यकारी समिति की कोई भी बैठक नहीं बुलाई जा सकेगी। इस आदेश में यह भी कहा गया है कि संयुक्त रूप से सामान्य परिषद की बैठक बुलाने और पार्टी के विभिन्न मसलों, जिसमें ‘एकल नेतृत्व’ को बहाल करने का मुद्दा भी शामिल है, पर निर्णय लेने पर कोई रोक नहीं होगी। ऐसे किसी परिदृश्य की संभावना नहीं दिखाई देती क्योंकि श्री पन्नीरसेल्वम इस मुद्दे को उठाने की इजाजत नहीं देंगे। अदालत का यह आदेश श्री पलानीस्वामी के लिए एक झटका है, जिन्होंने यह सोचा होगा कि उन्होंने सामान्य परिषद के सदस्यों के भारी समर्थन से पार्टी को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया है। उधर पार्टी से धकियाए और निकाले जाने के बाद श्री पन्नीरसेल्वम के लिए यह आदेश एक बड़ा संबल है क्योंकि उन्हें उनका साझा नेतृत्व वापस मिल गया है।
अदालत का यह आदेश इन तीन तर्कों पर आधारित है: कि 11 जुलाई की बैठक प्रेसीडियम के कार्यवाहक अध्यक्ष द्वारा नहीं बुलाई जा सकती थी, क्योंकि पार्टी के नियमों के मुताबिक ऐसा करने का अधिकार सिर्फ दो समन्वयक को ही है; कि यह बैठक 15 दिन की अग्रिम सूचना दिए बिना आहूत की गई थी, और 23 जून के बाद समन्वयकों का पद समाप्त हो जाने का दावा आधारहीन था। हालांकि, यहां एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या किसी पार्टी को दो ऐसे नेताओं के साथ चलाया जा सकता है जो वास्तविक रूप से एक-दूसरे के फैसले के खिलाफ वीटो की शक्ति रखते हों। बहरहाल यह पूछकर कि 1.50 करोड़ सदस्यों वाली पार्टी अचानक सिर्फ सामान्य परिषद के 2,500 सदस्यों के बूते व्यवस्था में बदलाव की चाहत कैसे कर सकती है, अदालत बहुमत के आधार पर निर्णय लेने की सामान्य परिषद की शक्ति पर सवालिया निशान लगाती हुई जान पड़ती है। अदालत यह भी कहती है कि इस बात की जांच की जानी चाहिए कि क्या ये 2,500 लोग वाकई पार्टी के सभी प्राथमिक सदस्यों के विचारों को प्रतिबिंबित करते हैं। अदालत की इस टिप्पणी के निहितार्थ पूरी तरह से स्पष्ट तो नहीं हैं, लेकिन इसका उपयोग सामान्य परिषद के मंच से किए गए किसी भी निर्णय को बाधित या खारिज करने के लिए किया जा सकता है। अब जबकि अन्नाद्रमुक का आंतरिक संकट गहराता जा रहा है, श्री पलानीस्वामी ने उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की है। अब एक सवाल यह उठता है कि क्या आपस में लड़ रहे दो गुटों को अदालती फरमान से एक साथ लाया जा सकता है, खासकर उस स्थिति में जब उनमें से एक निश्चित रूप से प्रभावशाली है।
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