फुटबॉल की अंतरराष्ट्रीय खेल नियंत्रक संस्था फीफा द्वारा अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) का निलंबन भारतीय खेल इतिहास की बदतरीन घटनाओं में एक है। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत के शानदार प्रदर्शन पर सामूहिक जश्न का दौर अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि फीफा ने सोमवार की देर रात "तीसरे पक्ष द्वारा अनुचित हस्तक्षेप" का हवाला देते हुए इस कठोर फैसले का ऐलान कर दिया। जिस तीसरे पक्ष को लेकर सवाल उठाए गए वह कोई और नहीं बल्कि भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा मनोनीत प्रशासकों की समिति (सीओए) है। इसका गठन मई महीने में अस्थाई रूप से एआईएफएफ का प्रभार संभालने और नए संविधान को अंतिम रूप देने के लिए किया गया था क्योंकि पिछली कार्यकारी समिति, अपना आधिकारिक कार्यकाल पूरा होने के बाद भी लंबे समय तक टिकी हुई थी। एआईएफएफ की नई कार्यकारी समिति में मतदान का अधिकार समेत खिलाड़ियों को राज्य एसोशिएशन के बराबर 50 फीसदी प्रतिनिधित्व देने का सीओए का फैसला ही विवाद की असली जड़ बना। इस मामले में फीफा की सिफारिश 25 फीसदी की थी और उसने सीओए पर निशाना साधते हुए विधिवित रूप से एआईएफएफ को निलंबित कर दिया। सीओए ने मंगलवार को कहा कि वह बीच का रास्ता खोजने के बहुत करीब था। कोर्ट ने अब केंद्र सरकार को यह जिम्मेदारी सौंपी है कि वह गतिरोध को तोड़ने के लिए फीफा के साथ बातचीत करे, ताकि भारत को अक्टूबर में अंडर-17 महिला विश्व कप की मेजबानी का अधिकार खोने का अपमान न झेलना पड़े। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में भारत की भागीदारी और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में इसके क्लबों की भागीदारी, जैसे कि एएफसी वीमंस क्लब चैंपियनशिप में गोकुलम केरल एफसी और एएफसी क्लब में एटीके मोहन बगान के खेलने पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। यही नहीं, फीफा और एशियाई फुटबॉल परिसंघ से मिलने वाली विकास निधि भी इसी खतरे की जद में है।
यह कहा जा सकता है कि पहली नजर में एआईएफएफ में खिलाड़ियों को समान हितधारक बनाने का फैसला एक अच्छी कोशिश नजर आ रही थी और सीओए इस मामले में अति उत्साह में था। लेकिन इसे नकारा नहीं जा सकता है कि भारत के राष्ट्रीय खेल विकास संहिता, 2011 द्वारा स्वीकृत 12 साल का कार्यकाल खत्म होने के काफी समय बाद तक अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल की अगुवाई वाला तत्कालीन एआईएफएफ प्रतिष्ठान ने सत्ता पर काबिज रहकर इस संकट को
जन्म दिया। खेल संहिता में निर्धारित सदस्यता, आयु-सीमा और कार्यकाल से संबंधित मानदंडों का उल्लंघन भारतीय खेलों में बड़े पैमाने पर होता रहा है; टेबल टेनिस, हॉकी और जूडो को 2022 में अदालत द्वारा नियुक्त प्रशासकों के अधीन रखा गया है। मंगलवार को दिल्ली उच्च न्यायालय ने एआईएफएफ मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को आधार बनाते हुए भारतीय ओलंपिक संघ को सीओए के अधीन लाने का फैसला सुनाया। अगर किसी को खेल की बेहतरी के लिए सरकार द्वारा अपनाई गई संहिता को लागू करने के लिए ऊपरी अदालतों के दरवाजे खटखटाने पड़े, तो यह साफ तौर पर बदतर हो चुके हालात की तरफ इशारा करता है। ठीक ऐसे समय में जब भारत की खेल संस्कृति में विविधता आ रही है और यहां से नए-नए चैंपियन उभरकर सामने आ रहे हैं, देश ऐसे नकारा प्रशासकों का भार वहन नहीं कर सकता जो जिस खेल का संरक्षक होने का दावा करते हैं, उसी को बदनाम करते हैं।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.